परमातमप्रकाशः | Parmatmatmprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ इस संस्कृत टीकाके अनुसार ही पंडित दौरतरामजीने अजमापा बनाई | यद्यपि उक्त पंडितजीकृत भाषा आचीनपद्धतिसे बहुत ठीक है परंतु आजकलके नवीन अचलित हिंदी- भाषाके संस्कारकमहाशयोंकी दृष्टिमें वह भाषा सर्वदेशीय नहीं समझी जाती है। इस कारण मैंने पंडित दौलतरामजीकृत भाषानुवादके अनुसार ही नवीन सरर हिंदीभाषामें अंबि- कूल अनुवाद किया है । इतना फेरफार अवश्य हुआ है. कि उस भाषाकों अन्वय तथा भावार्थरुपमें वांट दिया है । अन्य कुछभी न्यूनाधिकता नहीं की है । कहीं लेखकोंकी भूछसे कुछ छूटगया है उसको भी मैंने संस्क्ृतटीकाके अनुसार संभाल दिया है। इस अंथका जो उद्धार खर्गाव तलज्ञानी श्रीमान्‌ रायचंद्रजी द्वारा खापित श्रीपरमश्रुत-' प्रभावकमंडलकी तरफसे हुआ है इसलिये उक्त मंडलके उत्साही प्रबंधकतोओंकों कोटिशः धन्यवाद देता हूं कि जिन्होंने अत्यंत उत्साहित होकर अंथ प्रकाशित कराके भव्य जीवोंको महान्‌ उपकार पहुंचाया है।और ओीजीसे प्रार्थना करता हूं कि वीतरागप्रणीत उच्च श्रेणीके तत्त्वशञानका इच्छित प्रसार करनेमें उक्तमंडल कृतकार्य होवे । , ढ्वितीय धन्यवाद श्रीमान्‌ ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीको दिया जाता है कि बिन्‍्होंने इस अंथकी संस्क्ृतदीकाकी प्राचीन प्रति छाकर प्रकाशित करनेकी अत्यंत प्रेरणा की | उन्हींके उत्साह दिलानेसे यह गंथ प्रकाशित हुआ है । कि जब मेरी अंतर्मे यह ग्राथेना है कि जो प्रमादवश दृष्टिदोषसे तथा बुद्धिकी न्यूनतासे कहीं जशुद्धियां रह गई हों तो पाठकंगण सेरे ऊपर क्षमा करके शुद्ध करते हुए पढें क्योंकि इस आध्यात्मिक अंथर्में अशुद्धियोंका रहजाना संभव है । इस तरह घन्यवादपूर्वक प्रार्थना करता हुआ इस प्रस्तावनाको समाप्त करता हूं। अल विज्वेषु । खत्तरगजी हौदावाड़ी जैनसमाजका सेवक पो० गिरगाव-वंबरई मनोहरलाल वंशाख वदि ३ वी० सं० २४४२ पाढठम ( मैंनपुरी ) निवासी |




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