विश्वम्भरी | Vishwambhari

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Vishwambhari by महोपाध्याय माणकचन्द रामपुरिया - Mahopadhyay Manakchand Rampuriya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपने जन भी शत्रु-शिविर में- एक-एक कर चले गए, विश्वासी जन-मीत सचिव के- हाथों ही ये छले गए। ऐसे में ही एक दिवस वे- मृगया को थे निकल पढ़े, दूर-सुदूर-गहन जगल में- आकर बृष थे हुए खड़े। सहसा मेधा ऋषि का आश्रम- दीखा विमल-पवित्र बहां, पावन-परम सुहावन-सा था- सात्विकता का चित्र वहांँ। जप ने किया प्रणाम हृदय से- शीश झुका फिर बैठ गए, उनके मन में जागे तत्क्षण भाव अनेकों नए-नए। किया प्रणाम महामाया को- आँख मूँद लौ-लीन हुए, विनय हृदय से लगी फूटने - मन से प्रेम प्रवीण हुए। विश्वम्भरी 49




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