श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग - 1 | Shri Jain Siddhant Bol Sangrah Bhag - 1

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Shri Jain Siddhant Bol Sangrah Bhag - 1 by भैरोंदान सेठिया - Bhairon Sethiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १७ ] तिविहे भगवया ४म्मे पण्णते तंभहा:--सुअधिज्मिते सुस्कातिते सुतवस्सिते । जया सुअधिज्मकितं भत्रति तदा सुज्कातियं भवति जया सुज्मातियं भर्वात तदा सुतवस्सियं सचति । से सुअधिज्मिते सुज्मातिते सुतवसिते सुतक्खातेणं भगवा धम्मे पणणत्ते । ( सूत्र २१० ) बे #+ ए इस सूत्र का यह भाव हे कि श्री भगवान ने घर तन प्रकार से €ः ह्ः हट सर न २ वन किया है | जसे कि भली प्रकाश से पठन करना, फिर उसका ध्यान करना, फिर तप करना अर्थात्‌ आचरण करना | क्योंकि जब भली प्रकार से गुरू आदि के समीप पठन किया होता है नव ही सुध्यान हो सकता हे | सुभ्यान होने पर ही फिर भली प्रंकार से आचरण किया जा सकता है । अतः पहले पठन करना फिर मनन करना ओर फिर आचरण करना। यही तीन प्रकार से श्री भगवान ने धर्म बन किया है। इससे भली भांति सिद्ध हो जाता है कि श्री भगवान का प्रथम धर्म अध्ययन करना ही हे । सो सम्यग सूत्रों का अध्ययन किया हुआ आत्म विकास का मुख्य हेतु होता है | यह प्रस्तुत ग्रन्थ विद्यार्थियों के लिये उपयोगी होने पर भी विद्वानों के लिये भी परमोपयोगी हे ओर इसमें बहुत से बोल उपादेय रूप में भी संग्रहीत किये गए हैं। जेंसे कि श्रावक की तीन अनुम्रेक्षाएं । थानाज्ज सूत्र तृतीय स्थान के चतुथ उद्देश के २१० वें सूत्र में वर्णित की गई हैं। जेसे किः-- तिहि ठाणेहि समणोवासते महानिज्रे महापज्जवसाणे भवति। तंजहा:--(१) कयाणमहमप्पं वा चहुये वा परिग्गह॑ परिचइरस्सामि (२) कया ण॑ अहं मुंडे भवित्ता आगारातो अणागारितं पव्वइस्सासि (३) कया ण॑ अहं अपक्छिम मारणंतिय संलेहणा कूसणा भूसिते भत्तपाण पडियातिक्खते पाओोवगने काले अणवकंखमाणे विहरिस्सासि ।




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