रस अलंकार और पिंगल | Ras Alankar Aur Pingal

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Book Image : रस अलंकार और पिंगल  - Ras  Alankar Aur Pingal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११ ) स्वाभाविक क्रिया-से दोते हैं। जैसे” फुफकारते हुए काले साँप को ऋपने सामने आता देखते दी दर्शक की घिग्घी वेंध जाती है; बहुतेरा यत्न करने पर भी उसके मुँह से वात नहीं निकलती; वह वहाँ से सागना भूल-सा जाता दे. । ये व्यापार ्राप-से-झाप शरीर के द्वारा : हो जाते हैं । ये कार्य सीधे चित्त की जन्मजात मनोवृत्ति, अर्थात्‌, सत्व से उत्पन्न होते हैं । इसी से उनको सात्विक झलुभाव कहते हैं। कायिक अलुभाव यत्नज होते है किन्तु सात्विक झयरनज । सात्विक ब्यूनुभाव 'ाठ होते हैं:-- (१) स्तम्भ (प्रसन्नता, लज्जा; व्यथा आदि से शरीर की गति का वअप्राप-से-झाप रुक जाना); (९) खेद (श्रम' अजुराग; 'आाश्चर्य आदि, से शरीर का स्वतः पसीने से भर जाना); (३ रोमाय्व (हपे, भय आदि से रोंगटों का खड़ा हो जाना), (४) स्वर-भन्न (स्वाभाविक रीति से जैसे शब्द निकलते हैं वैसे न निकलना; चुप-सा हो जान); (४) कम्प (शरीर का थर-थर कॉपने लगना), (६) बैवण्ये या बिवर्णता (चेहरे का रह उड़ जाना; उसका 'फीका पड़ जाना); (७) अभश्ु (श्कस्मात्‌ 'मॉखों से 'मॉसुच्यों का बहने लगना); छोर (5) प्रलय (सुध-चुध का खो जाना या चेतना-शून्यता 1) यह स्मरण रखना चाहिए कि श्माश्रय की चेप्टाएं ही अनुभाव के ब्यन्तर्गत हैं छालम्वन की नहीं । सश्चारी या व्यभिचरी भाव रथायी भाव तो प्रधान मानसिक-क्रियाएँ हैं । इनके साथ ही कुछ देसी स्थायी मानसिक कियाएँ भी होती हैं जिनका 'ाविभाव कुछ काल कँ लिए ही द्ोता दे । वे स्थायी भावों के समान निरन्तर नहीं रहती स्थायी भावों को पुष्ट करके दी विलीन-सी दो जाती हैं । ऐसे




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