महाभारत भाग ४ | Mahabharat (vol - Iv)

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Mahabharat (vol - Iv) by गंगाप्रसाद शास्त्री - GANGAPRASAD SHASTRI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६.४ ): गया । यह भारत में फिर अपना साम्राज्य स्थापन करने का स्वप्न देखता ही रहगया और अन्त में रोता २ संसार से विदा हुआ । ” आारत-विजेता, शदाबुद्दोन गौरी, प्रथ्वीराज से वार २ पराजित हुआ और छोड़ दिया गया । अन्त में कन्नोज के राजा जयचन्द्‌ की. फूट से उसे प्ृथ्वी-राज पर विज्ञय नसोब हुई। भारत-सम्राट अकबर के साम्राज्य की नीच को सुदृढ़ करने चाले मानसिंह जेंसे- भारतीय राजपूत ही थे | इन राज-पूत्तों ने दी मुगत्न-साम्राव्य की जड़ को पाताल. तक पहुंचाया था। उस समय॑ भी. भारत की प्रतिष्ठा, मान, मयोदा के रक्षक, प्रातः स्मरणीय, शणा प्रताप, जेंसे हिन्दू-केशरी विद्यमान थे । इन्द्र के समान वेभवशाली, वादशाह शाहजहां के साल्ते, सल्लावतखां की गन भरे दरवार में घड़ से उड़ा देने वाले, दिल्ल-चल्ते राजपूत इस कछुलमय में भी थे । - ओग्इझजब के शासनंकाल में पच्जाव में सिक्‍्खों ने, राज- पृत्ताने में राजपूतों ने, दक्षिण में मरहठों ने शिर उठाया और अन्त में मुगलिया साम्राब्य की पात्ताल तक पहुंची हुई जड़ों को चंखाड़ कर फेक दिया। आज समय-चक्र ने चक्तर खाया और संसार को _सम्यता-सिखाने-वाल्े, रण-तास्डव-निपुण, उन्हीं न हिन्दुओं की महिलाओं की इज्जत, चक्तकर में पड़ गई है । इनके बच्चे पेट की आग से करुणा-स्वर में रो रहे हैं। अधिऋ क्या रोना है १ इस भूत्तल-शायी हिन्दूजाति के, जो चाहता है। नही दो लात लगा देता है । थे यह सब क्‍यों है ९ क्‍या कोई अकारण शत्र, हसको खताता रहता है नहीं; यह तो: हमारे. ही दुष्कर्मों का अवश्यम्भावी परिणाम है |. ह




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