पक्षपातरहित अनुभव प्रकाशकी (1995) | Pakshpat Rahit- Anubhav Prakash (1959)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सगे है. 3 अवुभवप्रकादा (५) प्रकार श्रद्धावान शिष्य मेत्रेयकी रस भरी हुई वाणी खुनके श्रीपराशर सुनिने सब म्रदनॉका केवल एक ही उत्तरसे समाधान किया कि- हि हे भेत्रय ! एवॉक्ति, जो हमने देहसे लेकर अज्ञान पर्मत सब पदार्थ करें हैं, सो तू नहीं है. क्योंकि अज्ञान और अज्ञानके कार्य जो सबे पदाथ हैं, वे परस्पर व्यभिचारी हैं, परस्पर अपेक्षावाले हैं, आपसभें काये कारण भाववाले हैं, चेतनके दृद्य हैं, देश, काल, वस्तु, परिच्छेदवाले दें; पदभाव विकारवाले हूं, अतिशयतादि दोष वाल हैं । चरम ज्ञानके घिषय हैं जड़ हैं, वाचारंभणमात्र हैं, स्वभवव प्रतीति मात्र हैं, अविद्याके परिणाम हैं, चतनके बिवतें हैं रज्जु सपंकी न्यांदे केवल मिथ्या दी तुम्हारे स्वरू- पर्मे कटिपत भतीतमात्र दोते हैं, स्वमददयव्दी म्यांइ हैं, चस्तुतः सत्य नददीं हैं, है भेंब्रय ! वास्तवस जो तुमने देहसे लेकर अज्ञान पर्यत पूवपदाथ कद्दे देँततथा अन्य भी अनिक' पदाथे हैं सो सब मन बाणीके गोचर हें और तुम्दारा स्वरूप अवाडूमनसगोचर है । सो साक्षाद्‌ कद- नेको दम भी समय नहीं; तैसे दी ठुम भी उसको साक्षात दृद्यरूपता करके जाननेको समर्थ नददीं;काइत ! रूवेजीव जिस विषय स्ुखको नित्य प्रति अचुभव करत हैं, वह जो शुब्द्स्पदयोदिक विषय जत्य सुख हे, तिसको भी जब साक्षात्‌ ददयकी न्यांइईं कहनेको तथा जाननेको कोई भी समथ नहीं दोता तो सब भकारसे अवाड़सनसगोचचर जो स्वेका आत्मस्वरूप सुख है, तिसको साक्षाद्‌ किसी मिस बिना विद्वान कैसे कहेंगे और केसे मुमुझ्ुु जानेंगे कित॒ कहना और जानना छछभी नहीं होगा, किसी एक निससे इसका कहना आर जानना दोनोंदी दोसकताई:जेसे मन करके भी आितनीय है रचना लिसकी, ऐसा जो




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