धर्म की उत्पत्ति और विकास | Dharm Ki Utpatti Aur Vikas

Dharm Ki Utpatti Aur Vikas by रामचन्द्र वर्म्मा - Ramchnadra Varmma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला श्रकरण कर सकता हो वह सब करे । आत्म-रक्षा के भाव में इस प्रकार की आर जितनी बातें मिली हुईं हैं उन सबको समझते हुए ओर उनका पूरा पूरा ध्यान रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि धर्म की उत्पत्ति का सवे-व्यापी मूल कारण आत्म -रक्षा का हीं भाव है । घर्म--निष्ठ पुरुषों ओर खियों का इस विषय में जो अनुभव दे वह भी बिल्कुल इसके अनरुप ही हे । अभी कुछ ही वर्षों की वात है कि मनावेज्ञान के एक अमेरिकन आचाये ने बहुत से दिक्षित परुषों के पास कुछ प्रश्न लिखकर भेजे थे । उन प्रश्नों के द्वारा उस आचाये ने उन लोगों स यह जानना चाहा था कि घ्मे में आप लोग क्या बात ढूँढते हूं आर उसमें आप लोगों को अब तक क्या मिला है । जो उत्तर आये थे उनमें बातें तो अनेक प्रकार को कही गई थीं परन्तु उन सब का मुख्य आदाय यहाँ था कि हम केवल एक बात चाहते हैं ओर केवल एक वात की आकांक्षा रखते हैं और वह यदद कि- हमें जीवन प्राप्त हो और अधिक जॉन प्राप्त होः और ऐसा जावन प्राप्त हो जो और भी अधिक पूर्ण और भी अधिक गम्भीर या मूल्यवान्‌ तथा और भी अधिक सन्तोपजनक हो स्वयं आत्म-रक्षावाली प्रचात्ति में कोइ एसी बात नहीं हैं जो घार्सिक कहीं जा सके। अपन निम्नस्थ तलों में वह केवल जाव तत्व सम्बर्धी हूं उसका थ् उद्देर्य अपने जाव और जीवन की रक्षा मात्र है। यदि हम मनुष्य को किसी ऐसे जगत में ले जाकर रख दें जिसमें उसे किसी प्रकार के अप- रिचित और आकस्मिक संकटों का सामना करने की नौबत न आवि ओर जहाँ वह अपनी समस्त आवश्यकताओं ओर वासनाओं की निश्चित रूप से पूर्ति और तृप्ति कर सकता हो-जहाँ उसके लिए इन सब वातों के सम्बन्ध में कभी कोई बाधा न हो सकती हो-तो फिर उसके लिए कोइ ऐसा अब- सर ही न आविगा जब कि उसे घर्म की आवइयकता हो । परन्तु वास्तव में




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