गौतमधर्मसूत्राणि | Gautam Dharma Sutra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
358
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. उमेशचन्द्र पाण्डेय - Dr. Umeshchandra Pandey
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( २३ )
प्राधान्य मिला तबतक सप्लु्नति तथा सम्छद्धि का समय बना रहा। धर्म का व्या-
वहारिक पहल है आचार ओर इसी कारण इसे परम घर्म भी कहा गया है, घर्म की
आधारशिला कहा गया है:
“झाचारः परमो घसः सर्वेपासिति मिश्चयः ।
हीनाचारपरीतात्सा प्रेत्म चेह च नश्यति ॥“--वसिष्ठधर्मसूत्र ६। १
आचार से हीन व्यक्ति के लिए छोक में कोई सुख नहीं है और उसे दूसरे
लोक में भरी सुख की प्राप्ति नहीं होती । कोई व्यक्ति वेद और शास्त्रों के ज्ञान में
भले ही पारंगत हो यदि आधार से अष्ट है तो सम्पूर्ण धर्मज्ञान उसे कोई छाभ
ट क्र च्सो०.. कर ७
नहीं पहुचाते ओर न आनन्द ही देते हैं जसे अम्धे के हृदय में उसकी सुन्दर
प्रियवसा भी कोई सोन्दर्यानुभूति का सुख उत्पन्न नहीं करती । -
आचारहीनस्य तु ब्राह्मणस्य वेदाः षडद्गजास््वखिलाः सयकज्ञाः ।
काँ प्रीतिझुत्पाद्यितुं समर्था अन्धस्थ दारा इव दृशनीयाः ॥ वही, ६॥४
इस प्रकार धर्मशाखकारों का आग्रह आचार के प्रति बराबर रहा है ओर वे
आचार को सम्मान, दीर्घ जीवन और सुख का कारण मानते हैं।
आचारो भूतिजनन थआचारः कीर्तिवर्धनः।
आचाराद वर्धते ह्यायुराचारो हन्त्यलक्षणस् ॥
और आचार की इसी सहिमा के कारण ही सदाचार को धर्म का साधन
माना गया है, जेसे वेद और स्मृति को। “वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्थ
च प्रियमात्मनः ।” सम्पूर्ण ज्ञान का उपयोग है उस ज्ञान को आचार में
परिणत करना। इसी कारण भारत का दाशनिक कोरे चिन्तन में समय
नहीं गंवाता। वह अपने जीवन को अपने दर्शन के अनुरूप ढाछता है ओर
आदर्श प्रस्तुत करता है। दर्शन और आचारशाख्र या नीतिशाख्र का परस्पर
अन्योन्याश्रय संबन्ध रहा है और यह संबन्ध वेसा ही रहा है जेसा कि “विज्ञान
और प्रयोग का, ज्ञान और ,योग का 1” एक ओर धम का मूछ आधार है नीति और
दूसरी ओर नीति दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है, इस प्रकार धमं, दर्शन और
नीति एक दूसरे से अप्ृथक् हैं, वे एक दूसरे पर निर्भर हैं-और एक दूसरे के पूरक
भी हैं। इसी वात का उल्लेख जान केअड ने 'एन इण्टोडक्शन टू द् फिकासाफी
आफ रिलीजन! पुस्तक सें किया है :--
“पु10[त्रा 9010509॥ठट85 था 1119668 18ए8 ९एछ1 860148760 (196
8 ए91050ए1फए का ढगए8 000 ब्ा।ठ ग्ॉाशनन्त०७छ००01९001. 167९ 27
88 10 राजीव्टापर्वा €7०एछ1 एाद0पएा 8 प्रणावाज लब्एथआ०त [[6., 10
98 8 20008 छगग10807187 3 1980 8100168 58 712८1910प705, एराणादव &00 001
20098 ००108.”
भारतीय घर या दर्शन में केवल नेतिक भावनाओं का ग्रतिपादन ही नहीं
किया गया है, अपितु वास्तविक जीवन में उनकी अभिव्यक्ति अस्तुत की गयी हे
ओर इस अभिव्यक्ति का मनौवेज्ञानिक आधार भी प्रतिस्थापित किया गया है।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...