परिवार पालि | Pariwar Paali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३) ईसा पूर्व २९ में राजा वट्टगामिनी अभय के संरक्षण में एक चौथी सड्भीति की बैठक हुई, जिसमे सम्पूर्ण 'तिपिटक' लिपिवद्ध कर किया गया। फिर स्थविरवाद को मान्यता के अनुसार वर्मा देश के माण्डले नामक नगर में १८७१ ६० में राजा मिण्डन के सरक्षण में पाँचवी सज्जीति का आयोजन हुआ, जिसमें सारे 'तिपिवक' का संशोधन और सम्पादन किया गया और उन्हे सद्भूममेर की पट्टियों पर इस प्रकार उत्कीर्ण कर दिया गया -- विनय १११ पट्टियाँ सुत्त ४१० पट्टियाँ अभिषम्म २०८ पट्टियाँ लोग इस आवश्यकता का अनुभव कर रहे थे कि अब इस युग मे आधुनिकतम यल्त्रो पर 'तिपिटक' का सुन्दर से सुन्दर मुद्रित सस्करण प्रकाशित किया जाय। वर्मा में होने वाले 'छट्ठ- सज्भायन' में इस अभाव की पूर्ति करने का निश्चय किया गया। राजपानी' रगून से कुछ ही दूर सुन्दर निमित पापाण-गुहा में १७ मई, १९५४ को सज्भायन की बैठक प्रारम्भ हुईं। ससार के विभिन्न देशों से आमन्त्रित ढाई सहस्त विद्वान भिक्षुओं ने सद्भायन मे भाग छिया। सद्भायन हारा स्वीकृत मूक 'तिपिटक' वही अपने मुद्रणाकय मे मुद्रित कर छिया गया। १९५६ ई० की पच्चीस- सौवी बुद्ध-जयन्ती के दिन सद्भायन की बैठक पुरी हुईं । छड्डा, वर्मा, थाईलेण्ड और कम्बोडिया आदि मे राष्ट्रधर्म वौद्ध-स्यविरवाद है, जिसका सर्वेभान्य ग्रन्थ है:---पालि-तिपिटक'। उन देशो में उनकी अपनी-अपनी लिपियो मे समय-समय पर तिपिटक के सुन्दर से सुन्दर सस्करण प्रकाशित होते रहे हें। लन्दन की 'पलि टेक्स्ट सोसायटी' ने भी 'तिपिटक' के अधिकाक्ष का प्रकाशन रोमन लिपि मे किया है। किन्तु अभी तक भारतवर्ष की किसी लिपि सें यह अमूल्य साहित्य उपलब्ध नही है। इस अभाव की पूर्ति के उद्देश्य से केन्द्रीय तथा बिहार सरकार के सयुक्त प्रयत्न से सम्पूर्ण 'वालि-तिप्टिक' को देवनागरी लिपि मे सम्पादित तथा मुद्रित करने की योजना स्वीकृत की गई। प्राय चार-चार सौ पृष्ठों वा़े चालीस खण्डो में यह प्रकाशन समाप्त होगा। इसे पूर्ण करने का भार नालन्दा के देवनागरी त्रिपिटक प्रकाशन विभाग' को सौंपा गया है। इस प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य रोमन, सिंहली, वर्मी तथा स्थामी छिपियो में मुद्धित ग्रन्थों के आधार पर एक प्रामाणिक देवनागरी-सस्करण उपस्थित करना है। 'तिपिदक' के ग्रन्थों का विभाजन किस प्रकार है, यह निम्न तालिका से प्रकट होगा :--- ९ महावंस, अध्याय १०-२३1 २. चौद्धवर्म के २५०० वर्ष, १९५६, पु० ३५१ घ




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