गायत्री महाविज्ञान | Gayatri Mahavigyan

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Gayatri Mahavigyan by श्रीराम शर्मा आचार्य - Shri Ram Sharma Acharya

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

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जन्म:-

20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)

मृत्यु :-

2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत

अन्य नाम :-

श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी

आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |

गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत

पत्नी :- भगवती देवी शर्मा

श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकाशकीय वैदमूर्ति, तपोनिष्ठ, पं० श्री राम शर्मा आचार्य ने अपने जीवनकाल में ३००० से अधिक छोटी-बड़ी पुस्तक लिखी है। गायत्री महाविज्ञान उनकी अनुपम कृत्ियों में से एक है । गायत्री महाविद्या को लेकर उन्होंने विलक्षण प्रयोग कर दिखाये । उनकी विशिष्ट गायत्री साधना के माते उन्हें महर्षि वशिष्ठ और गायत्री विद्या के युगानुरूप क्रान्तिकारी प्रयोग के कारण इस युग के विश्वामित्र के रूप में स्वीकार किया गया । आर्प ग्रन्थों में गायत्री की महिमा का गान अनेक प्रकार से किया गया है । इसे वेदमाता, देवमाता, सर्व कामधुक्‌ (सभी श्रेष्ठ कामनाओं को पूरा करने वाली) आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, बह्मवर्चस आदि विधूतियाँ प्रदान करते हुए ब्रह्मलोक तक गति देने वाली कहा गया है, लेकिन फिर भी उसे विशिष्ट साधको को दो जाने वाली गुह् विद्या ही माना जाता रहा है । आचार्य श्री ने इस युग में मनुष्य मात्र को दुर्बृद्धि के चंगुल मे जकड़ते- पिसते देखा, तो सदबुद्धि-सद्भाव प्रदायिनी गुह्ठा गायत्री महाविद्या को जन सुलभ बनाने के लिए भागीरथी तप- पुरुषार्थ किया । उनके इस पुण्य पुरुषार्थ के फलस्वरूप गायद्दी महाविद्या के युगानुरूप सफल प्रयोग के लिए “गायत्री महाविज्ञास' का सृजन और प्रकाशन हुआ। पुस्‍्तकाकार में उन्होने गायत्री महाविज्ञान की तीन भागो में प्रकाशित किया था । इसके अब तक ३३ संस्करण निकल चुके हैं। जिज्ञासु जन उन्हे अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुरूप अलग-अलग या एक साथ खरीदते रहे है । गायत्री महाविद्या के बारे में लोगों के प्रमों का निवारण और जिज्ञासाओं का समाधान नाना प्रकार से होता रहा है तथा इस विद्या मे लोकरुचि बढ़ती गयी । लोकप्रियता के इसी उभार के साथ विचारशीलों की ओर से यह प्रस्ताव आने लगे कि तीनों भाग मिलाकर इसे एक संग्रहणीय ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया जाए। विज्ञेजनों को इस माँग का सम्मान करते हुए ही इस संयुक्त संस्करण का प्रकाशन किया गया है । इस संस्करण में तीनों भागो को विषय सूची प्रारम्भ में हो एक साथ दे दी गयी है, लेकिन प्रत्येक भाग के लिए पूज्य आवार्यवर द्वारा लिखी गयी भूमिकाओ को उन भागो के प्रारम्भ मे यथावत्‌ दे दिया गया है । इस सस्करण में उद्धरणो एवं सन्दर्भो को विशेष रूप से शुद्ध करने एवं यथासम्भव सन्दर्भ ग्रन्यो का उल्लेख करने का प्रयास किया गया है । पाठ भेदों को प्रमाणित ग्रन्थो एव महाविज्ञान के प्रथम संस्करण (१९५०) से मिलाकर ठीक किया गया है। एक संशोधन और भी किया गया है, जो गायत्री मन्र के २४ वर्ण के सम्बन्ध में हैं। गायत्री मन्र के चौबीस वर्णों के उल्लेख क्रम में महाविज्ञान प्रथम खण्ड के “गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव' नामक निबन्ध मे तथा द्वितीय खण्ड के गायत्री रामाणण, वर्णानाम्‌ ध्यानम्‌ तथा अक्षर शक्ति कवच! भामक निबन्ध मे 'ण्यं' को 'णि य॑'- इस प्रकार व्यूहन करके २४ वर्ण की स्थिति स्वीकार की गयी है । यही शा्र सम्मद (इयादि पूरणे-पिगल सूत्रानुसार “इय' की वृद्धि) भी है। गायत्री महाविज्ञान के कुछ अन्य प्रकरणों मे सम्भवत: प्रेस की भूल या किसी अन्य असावधानी से मत्र के २४ वर्णों का वर्गीकरण कुछ भिन्न अंकित हो गया था । इस संस्करण में उस भूल को सशोधित कर दिया गया है । सभी स्थानों पर उक्त शास्त्रीय क्रम के अनुसार ही वर्णो का क्रम व्यवस्थित कर दिया गया है। आशा की जाती है कि यह ग्रन्थाकार संयुक्त सस्करण लोक रुचि के अनुरूप सिद्ध होगा । >बहावर्चस




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