मन ना भये दस बीस | Man Na Bhaye Das Bees

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Man Na Bhaye Das Bees by मालती जोशी - Malti Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अर मु “पता नहीं शिखा, पर मैं इतना जानती हूं कि यह श्यक्तित मेरे हर कदम पर फूल को तरह विछ जाना चाहता है; ओर एक तुम्हारे कातिक हैं--तुग्दें नही लगता शिखा कि मां अपनी झूडी प्रतिष्ठा के लिए मेरो बलि दे रही हू ?” “मां घी दात छोड़ो दीदी, तुम अपने मन का तो पता करो | तुमसे बिना पूछे तो वृछ हुआ नहों है ।” “यही तो' “*कभी-कभी अपना ही मन को व्यूप्त पहनी बन जाता है। सगाई में पहले मैं जानतो ही मही थी कि मेरे जोवन का फेंद्-विदु क्‍या है !” धक्‌ में रह गई मैं | यह क्या कह रही हैं दीदी ! कही मो से सुत लिया --और मेरी आखो के सामने मां का उस दिन का ताडव धूम गया । दोदी बे चाह अपने मन की वात बहुत बाद में पा चली हो पर लगता है, मा ने उतका मन बहुत पहले पढ़ लिया था। तभी तो वे इतनी व्यग्र हैं उठी थी, नहीं तो हम लोगों के कही आने-जाने को लेकर उन्होंने कभी टीका-टिप्पणी नहीं की । उनका अउना बचपन बहुतन्सों बंदिशों में बीता था । अपने उसी कुठाप्रस्त बचपन झा प्रतिशोघ सातो इस तरह लेती थी ये । पर दीदी की सगाई के साय उतके मन में छुटी बैठी परंप रावादी मां बाहर आ गई धी। अब तो दे क्कसर दीदी को डाट देती हैं या बुजुर्गों कौ-सी अदा में समझाने लगती हैं। दोनों ही बातें विविन्नन्मी लगती है। “एक बान बहू, दीदी ?” “कहो !” पष्मनाम इ्ध नो मैच फ़ॉर कारतिक ! उन दोनों की कोई तुलता नही है ।” #तुनना कर भी कौन रहा है। यह तो अयनी-अपनी पसंद है 1” “फिर भी एक वात कहूगी। पद्चताम पति के रूप में तुम्हे कभी खुश नहीं रख पाएगा 7 जयो ? यह बहुत अमीर नहीं है इसलिए ?” मन ना भये दस-दीस [ २३




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