पटाक्षेप | Patakshep

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Patakshep by मालती जोशी - Malti Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनजाने प्रियतम फो 1 अगले दो-चार दिलों में मेरे पाम बस यही काम था। जब भी समय मिलता, कांपी लेकर बैठ जाती और कविताओं वी भूसी-दिसरी पह्ियां जोड़-तोडफर लियत्ी रहतो1 आश्चय तो इस दात पर हुआ कि दो-यार गौत पूरे के पूरे याद था गए । शायद अंतर्मन पी किसी अंधेरी युफा मे दुबक- कर बैठे हुए ये गीत बाहर आने की वाट जोद रहे ये। अगली बार जब गौतम आए, तो मुझे अपनी कोरी मी याद हो आई । त्ीप्र इच्छा हुई कि उन्हे बता दू कि चाय-नाशो के परे भी मेरा दुछ अल्लित्व हैं। छवि की पुरतको पी उपेक्षा करते हुए मैं जमकर वही बैठ गई। अपने कावय्यपांठ की प्रस्ताववाओ मरते हुए मैंने पहा, “आपकी कविताएं हमने पढ़ी थी, गौतम साहव। सच, बदुत हो भावपूर्ण रेघनाए हैं । वे हैँ है! करके हंग दिए। शायद उन्हें आने वाले सश्ठ वी कल्पना न धी। “कुछ गीव हमने भी सिये हैं। सुनेगे आप ?” और उनकी सम्मठि की परवाह किए विला मैं अपनी कॉपी उठा लाई और तरनन्‍्नुम में सुनाने लगी । अपनी ऊब ओर सीम यो रिसी तरह दगते हुए गौतम यविताएं सुनते रहे। दाद देने रहे और घट्टी देयते रहे । दूसरा गोत समाप्त कर मैंने उनयी राय जानने के सिए मिर उठाया, तो देया वह यदे हो गए हैं। “कविताओं में ऐसा सो गया माभीजी, किए याद ही नहीं रहा--रात एफ जगह दिनर पर भी जाता है।” उन्होंने क्षमायाचना के ग्वर में बहा, अपना द्रीप-फेंस उठाया और सीढ़ियां उतर गए। छवि पता नहीं कब उठकर भीतर चली गई थी। स्कूटर की आवाज मृनते ही दौढ़ी आई, यह वया, गौतम साटव घले गए? आज इतनी जल्दी ? “जाने कँसे नहीं ! मैने मृथी हमी हमते हुए बहा, “संसार में ऐसा पटाक्षेप / २३




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