अनुभवा नन्द | Aanubhava Nand

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Aanubhava Nand by ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद - Brahmachari Shital Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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। ( १९ ) (और उसके सब सहुण सम्बन्धी भुप्ते अपनी कन्‍्याके प्रदान करनेकी [च्ञ प्रकाशित करते हैं । मैं परम शातता और परम कोमलता- [ले इस अपूर्व लामकों ग्रहण करनेकी स्वीकारता देता हू। वे फिर “कहते हैं तुम मेरी कन्याको स्वधर्मस प्रतिपाहन करना ! में इसके ईउत्तरम स्वधमैसे पालना स्वीकार करता हू | स्व समागण आनन्द शप्रफुलित हो. शिव देवीके साथ मेरा लम्म होना योग्य समझकर शी ४ पिद्धात्मस्वरूपकी भाव पूजाका स्मारभ और आरम करते हैं । : ऐसी पूमामें ध्यानामे जल्‍दी है | कर्म ईधनोंकी आहुति देकर होम होता है। अन्तमे उस निमछ वेडिकाके मध्य विरानित परम । पिद्भस्वरूपके चहुओर संप्त अंतिम गुणस्‍््थानरूप भ्रदक्षिणाओकी #करके वह शिव देवी आज मेरी पद्रानी होती है। मैं उसको पाकर ॥ अत्यन्त मग्न हो गया हू, मेरा स्वभाव उससे तनन्‍्मय हो गया है। / मैं अपनी प्रिया शिवसुन्दरीके भोगका अनुपम विलास्त लेता हुआ ( सर्व क्षणिक आनन्‍्दोंसे अतीत अनुभवानन्दके परम विशाकू | सुछ्लादको ग्रहण करता हू। [ दशलाक्षणिक धर्म | (८) दर्शन विशुद्धिधारी, अविकारी, निर्बैधदशा-विस्तारी, परमपूज्य, परमेश्वर, आत्माराम विहारी, चैतन्य भूषति आन निन , गण ' शमूहरुप पखिरकों साथ छे शुद्ध भावरूप मिन हे




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