कर्म काण्ड चन्द्रिका | Karm kand Chandrika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना प्राद्यीन समय में वेद और आय्यंजाति का ऐसा सम्बन्ध था जैसा जीघ तथा शारोर का है, वेद ए्स जाति का वतत्मा और यह उसके कर्मकाणड का साधनभूत शरीर ओर शरीर शरोरीमभाव से दोना में एकात्मता थी ॥ “पबिजानीश्याय्योपन्ये व दस्यव!”” ऋग्‌० १। ५१ । ८ इस चेदवाक्प के अनुसार वेदिक लोम हो आय्ये कहलाते थे, इनसे भिन्न दस्यु -- अनाय्ये थे, इसी आशय से गगयता में कृष्णजो ने कहा है कि ४८ अनायजुए्टपरवग्येपकी तिंक रपर्मुन! 7] है अज्जुन ! तू अनाय्यंता को छोड़, यह जअनाय्यता नरकपात का हेतु ओर अकीति के देने वाली है, अमस्तु-- इस अनाय्यंता रूपी नरक से निकालने का सौभाग्य महि स्वामी “दया- ननन्‍्दसरस्वतीजी'” को हो प्राप्त है जिन्होंने ऐसे विकंट समय में भारतीय सम्वान के निर्जोव शरोर में फिर बेदरूप जीवात्मां का सश्लार ओर भूमसडल में वेद भगवान्‌ का प्रजार किया, उक्त वेद्प्रचार के लिये मनु भगवान ने यहदद लिखा है कि:--- याइनघील्य द्विन्षां वेदमन्यत्र कुरुते श्रपम्र । सजीवशचरेव शद्रत्वमाध्ुगच्लुति सानन्‍्वयः | मनचु० २ । १६९८ अर्थ--जो वेद को न पढ़कर अन्‍्यत्र श्रम करता है यद्द अपने जीवन में दी पुत्र पौत्र सहित शूद्रभाव को शीघ्र हो प्राप्त द्वोजाता है “शुवादबतीति- शुद्र:!-जो शोक से डरकर भागे अथांत्‌ भयभीत रहे उसका नाम “ शूद १! है, वास्तव में जब से आयजाति ने बेद के अध्ययन को छोड़ दिया तभी से उसमें शूद्॒त्व का भाव आगया, आजकल जितनी वद्धतियें पाई जातो हैं वह प्रायः येदों से मिश्र ग्रन्थों का आश्रय करती हैं ओर प्राचीन समय में मनु आदि धर्मशाख केवल एकमात्र येद को अबलम्बन करते थे, जेसाकि मचुजी एक स्थक् में लिखते हैं किः--- या वेदबाह्या स्मृतयों यात्र काश कुश्ष्यः । सर्बास्‍्ता निष्फलाः भेत्य तभो निष्ठा हि ताः स्प॒ताः ॥ मनु० १२ । १५




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