अंगुत्तर निकाय भाग 1 | Anguttar Nikay Bhag-1

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Anguttar Nikay Bhag-1 by भंत आनंद कौसल्या - Bhant Anand Kausalyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ सनुष्य-घर्म से वढकर विशिष्ट आयें-ज्ञान-दर्शन को जान सकेगा। यहू ऐसा क्यो ? भिक्षुओ चित्त के नि्मछ होने के ही कारण । भिक्षुओ जितने भी वृक्ष हैं उनमें कोमलता तथा कमनीयता की दृष्टि से चन्दन ही श्रेष्ठ कहलाता है उसी प्रकार भिक्षुओ में एक भी ऐसी वस्तु नहीं देखता जो अभ्यास से ऐसी मुदु तथा कमनीय हो जाती हो जेसे यह चित्त । भिक्षुमो चित्त (योग) -अम्यास करने से बार वार अम्यास करने से मुदु हो जाता हू तथा कमनीय हो जाता है । भिक्षुओ में दूसरी कोई भी एक ऐसी वस्तु नही देखता जो इतनी शीघ्न परिवर्तन-शील हो जैसे कि यह चित्त। भिक्षुम चित्त इतना शीघ्र परिवर्तेन-शील हैं कि इस की सपमा देना भी आसान नहीं है 1 शिक्षुओ यह चित्त स्वाभाविक रूप से शुद्ध हैं। यहू बाह्यमल से दूषित हैं । भिक्षुओ यह चित्त स्वाभाविक रूप से शुद्ध हैं। यह वाह्यमल से निर्मल है । (९) भिक्षुमो यह चित्त स्वाभाविक रूप से शुद्ध है। यह बाह्यमल से दूपित है। इस बात को अज्ञानी पृथक-जन यथार्थरूप से नहीं जानता है। इसलिये में कहता हूं कि अज्ञानी पृथक-जन का चित्त एकाग्र नहीं होता 1 भिक्षुओ यह चित्त स्वाभाविक रूप से शुद्ध है। यह बाह्य मल से निर्मल है । इस वात को ज्ञानी-आरये-प्नावक यथायथे रूप से जानता है। इसलिये में कहता हूँ कि ज्ञानी-भार्य-घावक का चित्त एकाग्र होता है । भिक्षुओ यदि भिक्षु चुटकी बजाने के समय भर भी मैत्री-भावना करता है तो भिक्षुओ ऐसा भिक्षु ब्यान से अशून्य माना जाता है शास्ता का आाज्ञाकारी माना जाता है शास्ता के उपदेश के अनुसार चलनेवाला माना जाता है भर यही माना जाता हूं कि वह राष्ट्र-पिण्ड को व्यर्थ नही खाता । जो -बार बार मैत्री-मावना करता हैं उसका तो कहना ही कया ? ( आसेवन करना भावना करना सन में करना पर्याय- चाची है। ))




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