संस्कृत - सूक्तिसागर | Sanskrit Sktisagara

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Sanskrit Sktisagara by नारायण स्वामी - Narayan Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ रमुद्वितमुरों मधुलदनस्थ ।व्यक्तानुरागमिव खेलदन- जखेदस्वेदाम्बुपूरम सुपूरयतु प्रियं वः ॥ २६ ॥ पर्यद्ञीकू- तनागनायकफणाअणीमणीनां गणें संक्रास्तप्रतिविस्व- लनया विश्चद्धपुर्विक्रियाम्‌। पादाम्भोरुद्धारिवा- धिखुतामचक्ष्णां दिदज्षुः कायब्यूदमिवाच- रम्जुर्पाचताकूतों दरिः पातु बः ॥ ३०॥ पाथोधे: परिमथ्यमानसलिलादद्धांत्थितायाः श्षियः खानन्दो- ज्ञखितञ्जुवा कुटिलया दृए्येव पीताननः । अज्ञा- तस्व॒करद्वर्यीविगलितब्यालोलमन्धारगश्शत्ये बाहुग- तागता।न रचयन्नारायणः पातु बः॥३१॥ प्रतिविम्बिन तांप्रयातचु खकोस्तुभं जयात मधुभिदो बक्षः। पुरुषा- यितमभ्यस्थति लक्षमीयंद्धीक्य मुकुरमिब ॥३२॥ प्रत्यओ- स्मेपजिक्षा क्षणमनभिमुखी रत्नदीपप्रभाणामात्मब्यापा- रगुबो जानतजललबा जुंम्भतः खाहभज्जैः। नागा भो- क्त|मच्छाः शवनमुरफणाचक्रबालोपधान निद्राच्छेदा- मानों लच्मी-तारायणका पारस्परिक प्रेम प्रकट कर रहा हो ॥ २६ ॥ थे विष्यु भगवान्‌ आपको रक्षा करें जो पलेंगके समान बनाए दुए शपजोके फर्णोके मण्ियोंमें श्रपने शरीरको अनगिनत परद्धाई' पड़नेसे ऐसे जान पढुत हैं मानों अपने चरण दाबती हुई समुद्र-पुत्नी लच्मोजीकों सैकई नेत्रंससे देखनेको इच्छासे दी अपने सैकड रूप बनाए हुए हों ॥ ३० ॥ सथे जाते हुए समुद्रके जलसे जैसे ही। लदमीजों झ्रार्थी बाहर निकलीं तैसे हो अत्यन्त प्रसन्‍नतासे भी नचाकर तिरड़ी चितवनसे ह। मानो लच्मीजाके सुखको पिए जाते हुए वे भगवान्‌ नारायण आपकी रक्षा करे जिनके दोनों हाथंसे अनजाने ही मथनी बने हुए चब्बल नागराज छूट गए और जो आकारामें ही अपने दोनों डाथोका देसा चल्लाने लगे माना समुद्र मथ रहे दो ॥ ३३ ॥ भगवान्‌ विष्णुके उस बक्ष:्थलको जय ढं। जिसमें कोस्तुम मणि पढ़ा ६आ ई और जो लच्मीजोकी परथाई पढ़नेसे देखा जान पड़ता ई मानों दर्षणके समान उस बच्ःस्थलमें अपनी परक्ाई' देखतो हुई लच्ष्मीजी विपरीत रतिका अभ्यास कर रही है ॥ ३६ ॥ शेपनागके बढ़ेनबढ़े फर्णोसे घिरी तथा उनका देहसे बिछी हुई शेयारूपो उनको गोदमें फिर लेटना चाहते हुए विष्णु भगवाचूकी वे आँखें सदा आपकी रक्षा करें जो पूकादूक खुल जानेले टेदी-सो हैं, शेपनागके मणियोंकी चमकके कारण जा स्थिर नहीं हो पाती, अँगड़ाई और जैभाई आनेसे जिनमें तनिक-छा पानो भी भर आया दे और जो नींदके दूट संस्क्ृत-सूक्तिसागरः मभिताम्ना चिरमवतु हरे्दृष्टिराकेकरा वः ॥३३॥ भक्तिप्र- हबिलोकनप्रणयिनी नीलोत्पलस्पर्थिनी ध्यानालम्बनतां खमाधिनिरतेनोते हितप्राप्तेय । लावण्यैकमहानिधी रखसिकतां लक््मीदशोस्तन्वती युप्माक कुरुतां भवात्ति- शमन नेत्रे तजुर्वा हरेः॥ ३४॥ भाजुर्निशासु भवदं- ख्रिमयूखशोभालोभात्पताप्य किरणोत्करमाप्रभातम्‌ । तत्रोड्धते हुतबहात्क्णलुप्त रागे तापम्भजत्यनुदिनं स हि मन्‍्दतापः ॥ ३५ ॥ अ्ञाम्यन्मस्दरकम्दरोदरदरीब्या- बर््तिभिवारिधेः कल्लोलेरलमाकुल कलयतो लच्म्या मुखाम्भोरुहम्‌ । ओत्खुक्यात्तरलाः स्मराद्धिकसिता भीत्या समाकु्िताः क्रोघेन ज्वलिता मुदा मुकुलिताः शारेडेशः पान्तु बः ॥ ३६॥ मम्थच्माघरघूशिताणं- 'घुरिपोर्देवा छु- राकर्षणव्यापारोपरमाय पान्तु जगतीमाबदवीप्सा जानेसे लाल-लाल होकर पूरी खुल नहीं पाती ॥ ३३॥ अपना कल्पाण करने एवं मनोरथ सफल होनेके लिये समाधिमें स्थित लोगोंसे ध्यान किए जाते हुए तथा भक्तिके कारण चल्वन्त मम्न भक्तोंकों वह़े स्नेहसे देखनेवाले, अ्रपने सॉवलेपनसे नीले कमलोंकी समता करनेवाले, लच्मीजीके नेग्रोंकों श्रानन्दित करनेवाले तथा सुल्दरताके महासागर वे विप्णुजीके दोनों जेन्न था शरीर आपकी सांसारिक बाघाएँ नट करें ॥ ६४ ॥ हे भगवान्‌! सूर्य रात्रिमें आपके चरणोकों किर्णोंकी सुन्दरताके ज्ञालचसे आपके पास ही विश्राम करके प्रतापयुक्त होकर भ्रप्मिसे कुछ ताप ले लिए जानेपर कु समयके लिये मन्द होकर पुनः डर्सी तापसे दिनभर तपता रहता है, वस्तुतः उसमें ताप वेनेका सामथ्य नहीं है ॥ ३५ ॥ बिप्णु भगवाचूकी “वह दृष्टि आपकी रक्षा करे जो समुद्रमें घूमते हुए मल्दराचलकी गुफाओं और खाइयोसे टकराती हुई बढ़ी-बढ़ी लहरोंके अपेदंसे ब्याकुल लचमौजीके कमलके समान मुखकों देखकर चायसे ज्बल हो उडी, कामके कारण खिल डी, “दूसरेकी कन्या बिना दिए कैसे पाई जा सकती है” यद सोचकर डरसे सिकुड् गई, ऋधसे चसक उठी और फ़िर आनन्‍्दके मारे केंप गई ॥ ३६ ॥ देवता और असुरोफी खींचातानी शान्त फरनेके लिये कहीं गई, असन्‍्नतासे रोमाख़ित देहवाले विप्णुजीकी वे बाण्ियाँ संसारकी रक्षा करें' जो सथनी बने हुए मन्‍्दराचलसे सथे जाते हुए समुडठके भरे हुए जलके भीतरसे निकली आती हुई लफमीके




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