लाब्धेसार | Lhabdeshar

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Lhabdeshar by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| १४] निक्षेप करता है और जो अनुदयवाली मोह प्रक्ृतियाँ है उनका उदयावलिके बाहर निक्षेप करता हैं। इसी प्रकार अन्य करणोके विषयमें भी जानना चाहिये। दूसरे उपशान्तकषाय गुणस्थानका काल समाप्त होनेपर इस जीवका पतन होहा है। सो यहाँ ऐसा जानना चाहिये कि विशुद्धिवश यह जीव आरोहण करता हैं और सक्‍लेशवश उसका पतन होता हैं । इस प्रकार उपशान्तमोहसे गिरकर जब यह जीव सूक्ष्मसाम्परायमें प्रवेश करता है तब उसके प्रथम समयमें ही यह जीव अप्रत्याख्यान भादि तीन लोभोकी प्रशस्त उपशामनाको समाप्तकर सज्वलन लोभकी उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि करता हैं शेष दो लोभोकी भी उदयावलि बाह्य अवस्थित गुणश्रेणि करता हैं जिनका काल सज्वलन लोभके कृष्टिवेदक कालसे एक आवलि अधिक कालप्रमाण होता है तथा आयु कर्मके बिना शेष कर्मोकी सृक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिकरण और अपधूर्वकरणके कालसे कुछ अधिक कालूप्रमाण गृणश्रेणि रचना करता है । उतरनेवाले इस जीवके अप्रशस्त कर्मोका अनुभागवन्ध उत्तरोत्तर अनन्तगुणा बढने लगता है और प्रशस्त कर्मोका अनुभागवन्ध उत्तरोत्तर घटने लगता है। इसी प्रकार वन्‍्वयोग्य सभी कर्मोका स्थितिबन्ध यथाविधि बढने लगता है । इतना ही नही, सक्ष्म कृष्टिवेदनमें भी वृद्धि होने लूगती हैं । उतरते समय अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करनेपर उच्छिष्टावलिमात्र निपेकोको छोडकर दीप सूक्ष्म कृष्टियोका प्रथम समयमें ही स्पर्धकगत छोभरूप परिणमन हो जाता है तथा उच्छिष्टावलिमात्र निषेकोका स्तिवुक सक्रमण द्वारा उदयमें आनेवाले स्पर्धकरूप निषेकोमें निक्षेप होता रहता है। यहाँसे मोहके आनुपुर्वी सक्रमका नियम नहीं रहता सो यह कथन दाक्तिकी अपेक्षा किया है। आगे लोभवेदक कालको समाप्तकर यह जीव क्रमसे माया, मान और क्रोधवेदक कालूमें प्रवेश करता है । यहाँ और आगे जो-जो कार्य विशेष होते है उन्हें मूछसे जान लेना चाहिये । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जब यह जीव क्रोधसज्वलूनके वेदनके प्रथम समयमें स्थित होता है तब ज्ञानावरणादि कर्मेके साथ बारह कषायोका गलितशेप गुणश्रेणि निक्षेप होता है तथा तभी यह जीव अन्तरको धारता हैं। इसके बाद इस जीवके पुरुषबेदका उदय होते समय सात नोकषायोका उपशमकरण नष्ट हो जाता है। यहाँ बारह कषाय और सात नोकषायोकी ज्ञानावरणादि कर्मोके समान गुणश्रणि होती है । आगे स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेके प्रथम समयमें मोहनीयकी २० प्रकृतियोकी गुणश्रे णिरचना होती है । भागे नपुसकवेदके अनुपशान्त होनेपर मोहनीयकी २१ प्रकृतियोकी गुणश्रेणि रचना होती है । पहले चढनेदालेके छह्‌ आवलि काल जानेपर बँधनेवाली प्रकृतियोके उदोरणाका नियम हैं यह बतला आये है । किन्तु उतरनेवालेके सृक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे ही यह नियम नही रहता । ससारी जीवोके समान बंधनेवाले कर्मोकी एक आवलिके वाद उदौरणा होने रूगती हैं। इसी प्रकार चढते समय जिन कर्मोका मात्र देशघात्ति वन्‍्व होने रूगता है सो यथास्थान उसका अभाव होकर सर्वधाति बन्ध होने लगता हैं । तथा उतरनेवालेके यथास्थान असख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणाका भी अभाव हो जाता हैं। इसी प्रकार चढने- वालेके जो स्थितिबन्धकी अपेक्षा क्रमकरण होनेका विधान कर आये हैं सो उसका भी अभाव हो जाता है । इसके बाद जब यह जीव अपूर्वकरणमें प्रवेश करता हैँ तव उसके प्रथम समयमें ही अप्रशस्त उपशामना, निधत्ति और निकाचन ये तीनो करण उद्घाटित हो जाते हैं । अर्थात्‌ चढते समय अनिवृत्ति- करणमें भ्रवेश करनेके पूर्व जो कर्मपुन्न अप्रशस्त उपशामना आदिरूप थे वे पुन उसरूप हो जाते है । इस विधिसे यह जीव क्रमसे अपूर्वकरणको पूरा कर अध अ्रवृत्तकरणमें प्रवेश करता है । यहाँ यह पुरानी




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