आधुनिक कहानियाँ | Adhunik Kahaniyan

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Adhunik Kahaniyan by हरदेव बाहरी - Hardev Bahari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बूढ़ी काकी ११ काकी नें लःडली की बोली पहचानी । चटपट उठ बंठी । दोनों पाथों से लाडली को टटोला और उसे गोद में बैठा लिया । लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं । काकी ने पूछा--“'क़्या तुम्हारी अम्मा ने दी हें !” लाडली ने कहा-“नहीं यह मेरे हिस्से की हैं ।' काकी पूड़यों पर टूट पड़ी । पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई । लाडली नें पुछा--“'काकी पेट भर गया ! ” ज॑से थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती हैँ उसी भाँति इन थोड़ी-सी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा को और भी उत्तेजित कर दिया था। बोली--“नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और मांग छाझ्रों ! ” छाडली ने कहा--“अम्मा सोती हें, जगाऊँगी तो मारेंगी ।”” काकी ने पिटारी को फिर टटोला । उसमें कुछ खुचंन गिरे थे । उन्हें निकाछकर वे खा गई | बार-बार झ्ोंठ चाटती थीं । चटखारें भरती थीं। हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कंसे पाऊँ (संतोष -सेतु जब टूट जाता हैँ तब इच्छा का वहाव अपरिमित हो जाता हैं 9 मतवालों को मद का स्मरण कराना उन्हें मदान्ध वनाना है । काकी का अधीर मन इच्छा के प्रवल प्रवाह में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा | वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रही 1 सहसा लाडली से बोलीं--“मेरा हाथ पकड़कर वहाँ तो चलो जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया हैं ।!' लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी । उसनें काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर जूठे पत्तलों के पास बिठला दिया। दीन, क्षुधातुर, हत-ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी । ओह ! दही कितना स्वादिष्ट था, कचौरियां कितनी सलोनी, खस्ता कितने सुकोमल । काकी बुद्धि-हीन होते हुए भी




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