रत्नदीप | Ratn Deep

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Ratn Deep by श्री जनार्दन झा - Shri Janardan Jha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला भांग १६ होगा! ऐसी स्त्री से सासारिक छुप की आशा फरना दुराशा मात्र हे । एक चार मुझ से भेद कर लेने के लिए सी न उरी, मेरे साथ न जाती ते न सही | इतने दिन बाद एक बार सुझ से भेट नो कर लेती | भेट करने में क्या हानि थी ? कोध ओर अभिमान से गोपाल फा दम फूलने लगा । जप बह झिसी तरह दु एके वेग को न सह सका तप श्रपने मन में कहने लगा कि जाने भी दो, अप ससुराल न जाऊँगा, उसके साथ शअप फोाई सम्पक न रस्पूँगा | मैं दूसरा ब्याद् करूँगा ।--इन बातों फो सेचते विदाय्ते स्नान करके गोपाल घर लोट आंया। खाने पीने फे बाद विछौने पर लेट कर गोपाल सोचने लगा, शआज ते सुन्दरपुर लोटना नहीं है--कल दोपहर फी गाडी से जाऊँगा। दूसरा विपाद्द करूँगा, इस सिद्धान्त को एक अकार से भन में स्थिर कर लेने पए सेचा कि फिर भी लीला- बती फे खाथ पएऊ बार श्ाखिरी मुलाफात कर लेना चाहिए। आज चसन्तपुर जाकर उससे सुल कर वातें करूँगा। कहूँगा-- जैसे अन्य स्रियाँ अपने पति के साथ रहती हैं, उसी तरह राहना यदि तुम स्थीफार करो ता मेरे साथ चलो। यदि उस तरह मेरे साथ रहना मजूर न हे। तो आज मुझ से साफ साफ फहद दो--म॑ दूसरा वियाद कर लें । गोपाल ने घडी निकाल कर देखा, एक वज फर बीस मिनट हुए थे। उसने कपडे पहने। सिर्फ छतरी आर वेग से कर चह पैदल ही सखुराल के रवाना हुआ । जब वह फाटक से बाहर निकल रहा था तय स्वर्णलता न मालस फिधर से दोड कर आई ओर अपना छोटा हाथ उठा कर चोली--क्षाका । “क्या है स्पर्य !?




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