जल भेद | Jal Bhed

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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] श्रीकृष्णाय नम ॥॥ 0४ भोमदाचायंचरणकमछेस्यो ममः॥। ग्रन्थ-परिचय जलभेंद तथा पञ्चपद्मानि ग्रन्थ क्व कहा और किसके छिए लिखे गये इसका विवरण कही मिलता नहीं है जलूमेंदम भगवत्कथाके वक्‍ताके उत्तम मध्यम तथा कमिप्ठ स्वरूप निर्धारित किये गये हैं, तया पजचपद्यानिम श्रोतरत्रे उत्तम मध्यम और कनिष्ठ स्वरूप निर्धारित किये गये हैं यद्यपि भागवत के ग्रथम स्कन्धका भी वर्ष्य-वियय यही है किरमी सवोद्ममे दोना ग्रन्थ प्रथम स्कन्‍्धका ही अनुसरण करते हूँ ऐसा नही कद्दा जा सकता है भागवतके प्रथम स्कन्धमे स्वयम्‌ भागवतके वक्‍ता तथा श्रोता के उत्तम-मध्यम-कनिष्ठ अधिकारोका निरूपण किया गया है जवबि' इन जरूभेद और पज्चपद्मानि मे भागवतोक्त घर्मं द्रणागति तथा निर्मुणा भक्त के अमगरभूत, भगवानके स्वरूप गुण एवम्‌ लीझाओं के श्रवण-स्मरण-कीतेनार्ये अपेक्षित, बकताआ तथा श्रोताओं के उत्तम मध्यम-कनिष्ड अधिकारका विवेचन किया गया है यहा भागवतपुराणके प्रवचन या श्रवण का प्रश्न नहीं है अपितु आगवतानुसारी भगवान्‌के स्वरूप गुण एवम्‌ ल्हीलाओं के श्रवण-स्मरण-कीतनके एक व्यापक सन्दर्भमे ही श्रीमहाप्रमुने जलमेद तथा पज्बपद्यानि ग्रन्थका उपदेश दिया है. अतएंव भाग अतके लिए श्रीमहाप्रभु आज्ञा करते है-- यदौपनिपद ज्ञान श्रीभागवतमेव था। बणिनामेव तद्धि स्थात्स्त्रीशूद्राणा ततोन्यथा 1) (भाग नि ३1१७८) अर्थ ओपनिषद तथा श्रोमागवतके ज्ञान का अधिकार उपनयत्र सस्कारवाले द्विजोका ही होता है-अनुपनीत स्त्री या शूद्रो का नही आजवल चल निकली चन्दा एकमित करनेके लिए होती भागवत सब्पाहकी हास्यास्पद रीतिसे विपरीत मायवतके अवचन ओर श्षवण के कुछ यस्समीर नियम श्रीमहाप्रभु स्वीकारते हैं अतएव आज्ञा १रते है जि भागवत प्रसयो न यथाकथजचिद्‌ यत्रवुतरसिद्‌ कर्तव्य जिस्तु महान्तइ्चेद बहव' शुद्धास्तीर्थनिरता प्रार्थययुस्तदैव प्रसण कतंव्य एतादुशेपि श्रोतरि न सहसा भागवत वक्‍यब्य किन्तु तद्हददयमवमाह्मेव रोतिरिय सदा ” (माग- नि १४२२-२५) अर्थ जैसे मनमे आये बेसे, जहा मनमे आजाये वही, भागवतका श्रसग छेड नहीं देना चआहिये किन्तु अनेक महापुरुष तीर्थवासनिरत शुद्ध श्लोलराआ द्वारा प्रार्थना किये जानेपर ही आगवतका प्रसंग छेडना चाहिये फिर ऐसोके सम्मुख भी सहसा नहीं--पहले श्रोताकी हादिक उत्कष्ठा एवम्‌ जिज्ञासुता को अच्छी तरह पहचान कर ही प्रसग छेड़ना चाहिय आदि- अवचनकर्ताआकी यही रीति थो और आज भी तथा सर्वदा यही रीति हमे निभानी चाहिये श्रीपुषषासमजी कहते हैँ कि इसके विषरील जब अनधिकारी लोग गशोरिप्सा, घतलिप्सा




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