प्राचीन इतिहास संस्कृति और पुरातत्व | Prachin Itihas sanskriti Aur Puratatva

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुप्तकाल मे पहुँचते-पहुँचते भारतीय समाज अत्यधिक उन्नति कर चुका था। गुप्तों के विषय मे सबसे अधिक जानकारी पुराणों से होती है। पुराणों के अनुशीलन से. अवगत होता है कि गुप्तवंश का नाम निम्नलिखित पुराणों में आया है - वायु पुराण मत्स्य पुराण विष्णु पुराण। चीनी यात्रियों के विवरण और सस्कृत साहित्य मे भी गुप्तवश का परिचय मिलता है। गुप्त वंश का प्रथम शासक और सस्थापक श्रीगुप्त नामक राजा था। श्रीगुप्त को महाराज उपाधि से भी विभूषित किया गया था। श्रीगुप्त के पश्चात्‌ इस वश का उत्तराधिकारी घटोत्कच हुआ और उसके पश्चात्‌ 319 से 335 ईस्वी तक चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पराक्रम से महाराजाधिराज उपाधि से अलंकृतत हुआ। इस गुप्तवंश का चन्द्रगुप्त प्रथम ही... शक्तिशाली और प्रभावशाली शासक हुआ। महाराजाधिराज होना भी इस बात की ओर संकेत करता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य के छोटे से क्षेत्र को चारों ओर से बढाकर एक महत्वपूर्ण विशाल राज्य का रूप दिया | चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य के विस्तार के लिये लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ वैवाहिक संबन्ध स्थापित कर राजनीति के क्षेत्र मे अपनी शक्ति का विस्तार करना प्रारम्भ किया। लिच्छवियो के साथ वैवाहिक सम्बन्ध को अत्यधिक महत्व दिया गया है क्योकि उस युग मे लिच्छवियों की सामाजिक आर्थिक धार्मिक और राजनैतिक स्थिति अत्यत ही सुदूढ थी । यहीं से ही गुप्तकंश का प्रभाव महान राजवशों के रूप मे फेलने लगा और गुप्तवश का साम्राज्य विस्तार होने लगा। चन्द्रगुप्त प्रथम के लिए यह लिच्छवि राजकुमारी बहुत बड़ी भाग्यशालिनी प्रमाणित हुयी। उस समय लिच्छवियो के साथ संबंध स्थापित होना ही महान्‌ गौरव की बात थी। इसी उद्देश्य से चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपनी मुद्राओं पर भी लिच्छवि शब्द अंकित किया और अपने पुत्र को लिच्छवि-दौहित्र प्रचलित किया। इस प्रकार यह भी अवगत होता है कि लिच्छवि कुमारदेवी के विवाह से चन्द्रगुप्त प्रथम को सामाजिक सम्मान राजनीतिक शक्ति और संभवत कुछ राज्य भी दहेज रूप मे प्राप्त हुए थे | गुप्तबंश के राजा क्षत्रिय थे। उनके विवाह संबंध लिच्छवि और वकाटक आदि क्षत्रिय वशों के साथ होने के प्रमाण मिलते हैं । उनके नाम के 7)




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