पुराण - परिशीलन | Puran - Parishilan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुराणों की वक्‍्तृपरम्परा सृष्टि, प्रछय, वंश आदि का तत्त्व वतानेवाली विद्या, पुराण-विद्या कहलाती है। वह अनादि है । किन्तु, इस अनादिविद्या का प्रचार किस प्रकार हुआ, इस परम्परा का विचार अब यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। जिस प्रकार वेदो के मन्त्र या सुक्‍्त ईश्वर के अनुग्रह से पहले ब्रह्मा के हृदय में और फिर ब्रह्मा के अनुग्नह से भिन्न-भिन्न ऋषियों के हृदयाकाश में प्रकाशित हुए और उनके द्वारा मानव-समाज में विस्तृत हुए, उसी प्रकार सृष्टि आदि की पुराण-विद्या भी प्रथम ब्रह्म के द्वारा ही प्रकट हुई और आगे देवताओं, ऋषियों या अवतारो के हृदय में स्फूरित होकर उनके हारा कथोपकथन से मानव-समाज में फैलती रही, जिसका वर्णन पुराणों में ही मिलता है ।* भत्स्य, कूर्म, वाराह वामन आदि पुराण उन-उन अवतारो के द्वारा ही प्रचारित हुए हे। वायु, ब्रह्माण्ड, भविष्य आदि पुराण देवताओ के द्वारा और भागवत, माक्कंण्डेय आदि ऋषियों के द्वारा शिष्य-परम्परा में फैलायें गये हैं। यह सव परम्परा उन पुराणों में ही लिखी मिलती हे । >< >< >< यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि दिवलोक' या स्वर्ग दो प्रकार का माना जाता है। सूयमण्डल, चन्द्रमण्डल या उनके समीपस्थ भिन्न-भिन्न ग्रह भी «एक-एक छोक हूँ। ये सब स्वर्ग! नाम से कहे जाते हूँ । यही मुख्य स्वर्ग है और इनके निवासी देव या देवता कहलाते हें। ये मुख्य देवता हँ। किन्तु, हमारी इस पृथ्वी पर भी भू, भूमि, स्वर्ग और पाताल इन तीनो छोको की कल्पना प्राचीन काल में थी। उत्तर दिशा का सुमेरु प्रान्त स्वर्गलोक' नाम से प्रसिद्ध था और उसके निवासो भी देव या देवता कहलाते थे। यह सब पुराणों से ही सिद्ध हो जाता है । इन दूसरे प्रकार के देवताओं का भारत-भूमिनिवासी मनुप्यो के साथ पूर्ण सम्बन्ध रहता था। वे उन्हे उपदेश देते थे, भिन्न-भिन्न प्रकार का कौशल सिखाते थे, १. अनेक पुराणों में अक्मा से कृ्णद्रैपायन व्यास तक की परम्परा मिलती है, जैसा कि वायु- पुराण आदि मैं । कई पुराणों में पूरी परम्परा नहीं है, किन्तु परम्परा के कुछ अश सभी में मिलते हैं ।




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