वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति | Vaidik Vigyan Aur Bhartiya Sanskriti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हे ) अर्वाचीन विज्ञान के अनुसार इस उष्णता की माप ९८८” फारेनहाइट ताप- क्रम है । यह उष्णता १०७ अंश से अधिक हो जाय या ९७ अंश से नीचे आ जाय; तो जीवन या. प्राणात्मक स्पन्दन समास दो जाता है । जो सम्ट या विराट विश्व में आदित्य का तेज है, उसकी उष्णता असीम है । वैज्ञानिक मत में सूर्य के धरातल पर ६००० अंश और उसके केन्द्र में दो करोड़ अंग की गर्मी है किन्तु प्रकृति का ऐसा विलक्षण विधान है कि उस उष्णता का अत्यन्त नियमित अंश मानव के इस झारीर-रूपी घर्म था पात्र को प्रा होता है और उसी की संज्ञा प्राण या जीवन है । वेदिक परिभाषा में विश्व की विराद्‌ अग्नि को अश्वमेघ और दरीर की अग्नि को अर्क कहा जाता है। अकसंश्ञक दारीर की प्राणाग्नि तीन प्रकार की होती है; अतएव उसे त्रिघातु अर्क कहा जाता है (यजु० ८1६६) । अग्नि एक ज्योति है, उसमें तीन ज्योतियों का सम्मिछित रूप है । प्रजापतिः प्रजया संररास्त्रीणि उयोतीपि सचते स पोड्शी (यजु० ८1३६) | अग्नि-वायु-आदित्य अथवा वाक्प्राण-मन अथवा क्षरअक्षर-अव्यय अथवा अर्वाचीन विज्ञान के दब्दों में मेटर-लाफ-माइंड ये ही तीन ज्योतियाँ हैं, जिनके विना कोई भी प्राणास्मक स्पन्‍्दन या यज्ञ सम्भव नहीं है । इन्हें ही प्राण-अपान-व्यान नामक तीन अग्नियाँ कहा जाता है, जो यज्ञ की तीन वेदियों में गाहपत्य, दक्षिणार्नि और आहवनीय के रूप में प्रज्यलित रहती हैं | यजुर्वेद में जहाँ अग्नि-चयन या धघर्मयाग का वर्णन है, वहाँ आरम्भ में ही यह प्रश्न उठाया है कि प्राणाग्नि के इस स्पन्दन का ख्ोत क्या है । , इसके मूल कारण को वहाँ सविता कहा गया है और उस सविता की संज्ञा मन है । सविता के सब या मन की प्रेरणा से ही प्रज्ञा्मक प्राण का यह स्पन्दन आरम्भ होता है और मन की दक्ति से ही जन्म भर इसका समिन्घन या जागरण चलता रहता है। “सविता वे देवानां प्रसविता”, अर्थात्‌ सविता देवता ही प्रत्येक प्राण केन्द्र में उद्बुद्ध होकर अन्य सब देवों को खींच लाता है। सविता उन्य देवों का योक्ता है। वही सबके अन्य कर्मों का विधान करता है । “मही देवस्य सवितुः परिष्डतिः”, सचिता देव की यही महती स्व॒ति या सर्वाधिक प्रशंसा है । इस समस्त विश्व की जो संचालक दाक्ति है, वह्दी विराट सविता देव है। उसकी जो दाक्ति प्रत्येक केन्द्र में आ रही है वह सावित्री है । साबित्री- दाक्ति प्रत्येक केन्द्र को ओत-प्रोत करके वहाँ से प्रतिफलित होकर अपने मूल स्थान को लौट रही है । दाक्ति का यही रूप है । वह आती हैं और जाती है । इसी नियम से उसके धन और कऋण ये दो रूप बनते हैं । विद्वात्मक सचिता से प्राप्त होनेवाली साविन्नी की धारा जब हमारे दारीर से प्रतिफलित होती है, तब उसे ही गायची कहते हैं सावित्री और गायत्री का एक छन्द है । युलोक सावित्री और प्रथिवी गायत्री है । ये दोनों एकद्दी मूलभूत दाक्ति के दो रूप हैं। मनुष्य के दारीर में जो प्राण है, चद्द प्रति बार « बाहर जाकर छुलोक के विश्वात्मक प्राण के साथ मिलकर फिर भीतर आता है, जैसा




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