धर्म कर्म रहस्य | Dharma-karma-rahasya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.05 MB
कुल पष्ठ :
184
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धर्म का तत्त्व द हैं। मनुष्य के कल्याण के कर्म करने में जा सामाविक प्रदत्ति होती है वद्द धर्म है घोर हिंसादि निषिद्ध कर्मों के करने में जो रुकावट होती है बह अघर्म है । सृष्टि के पूर्व एक ईश्वर ही थे ( एसमेवाद्धिवीयम- श्रुति-ंश्वर निश्वय झकले थे कोई दूसरा नहीं था ) । ईश्वर में सृष्टि के उद्धव का सट्ूस्प हुआ ( साप्रकामयत बहु स्यां ग्रजायेयेति--वैतिरी योपनिषत्--ईश्वर ने अनेक प्रजा के उद्धव का संकल्प किया ) । यही ईश्वर की आदि-सट्म्परूपी उनकी दिव्य ( परा ) प्रकृति सृष्टि का जीबन-सूल श्राधार श्रौर सथ्वालक है ( श्रीमद्भगवदगीता अध्याय ७ श्लोक ४५) । यह आादि-सझ्ठरप किसी स्त्राथ-साधन के लिए नहीं हुमा क्योंकि ईश्वर को न तो कुछ श्रप्राप्त है श्रौीर न कोई कर्तव्य ( गीता अ० ३ श्लोक २९ ) |. अतएच यद्द सटूरप स्वार्थ-मूलक न होकर पराधध-मूलक अर्थात तप श्र यज्ञ है। ( उक्त आदिशक्ति ही गायत्रा हैं भ्र्थात् त्राण करनेवाली हैं धार वेद झर्थात् परा बियया का मूल हैं जिससे धर्म की उत्पत्ति हुई। इसका भाव यह है कि ये त्राण करनेवाली शक्ति केत्रज्त धर्म द्वारा प्राण करती हैं।) इस झादि-सट्टूरप द्वारा ईश्वर ने झपने समान अनेक प्रजा को उत्पन्न करने ( एके बहु स्यामू--श्रुति--एक हूँ झनेक हो जाऊँ ) श्रौर उनको अपने ब्रह्मानत्द दिव्य शक्ति सामथ्य झादि के सम्प्रदान अर्थात् यज्ञ ( स्वाद ) करने का सझुरप किया शार यही इस सृष्टियज्ञ का मुख्य तात्प्य्य है 1.
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