अर्थ शास्त्रम | Artha Sastram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(२६ ) डा० जायसदाल ने, प्राचीन भारत मे प्रतिष्ठित 5२ प्रजातन्ो की नामावती दो है ( हिम्दु-राजतत्न, १, पृ० २६७-२७०, परिशिष्ट ख ), जिससे भारतीय जन-जीदन में प्रजाठन्त्र के प्रति बदम्प निष्ठा और बात्मोन्षयन के लिए बडिय आस्था का पता चलता है । जिन इठिहासकारों का यह कहना है कि भारत मे प्रजातन्त्र की स्थापता अधिक प्रादोत नहीं है उनको भारतीय इतिहास की जानकारी नहीं है। वास्तविकता यह है कि जिस युय के भारत में अनेक प्रकार को शासन- प्रणालियाँ प्रदलित हो चुको थो, उम्र समय तक योरप के बनेक देशों में शासन-सूत्र का आरम्भ हो ह्ढी रहा था । जहाँ तक प्रजातन्त्रात्मक शासन का च्रश्न है इसकी स्थापना तो वहाँ और भी बाद मे हुई । सघात राज्य--आचादें छोटिल्य ने सधात राज्यों को शासन-प्रणाली और उतके सघटन के सम्बन्ध में अनेक दातें बतायो हैं ॥ भहादलशालों मोर्य साम्राज्य की एकराज शास्न-ब्यवस्था मे अपने अस्तित्व को दनाये रखने को शक्ति इन्ही सघात राज्यो मे पायी गयी । ये सधात प्रजातन्त्र के पोषक थे ओर उन्होंने एकराज शासन का सदा बहिष्कार क्या। इन प्रजातस्ववादी सघातो को वेश मे करने के लिए कौटित्य ने साम बोर दान नौति को उपयुक्त बताया है, क्योकि शक्ति और सघटन की दृष्टि से वे इतने शक्तिशाली होते थे कि उनको जीतता सर्दया बसभव था। कौटिल्य का सुमाव है कि “बिस्ती सघ को प्राप्त करना, जीतना, मित्रता संपादित करने या संनिक सहायता प्राप्त करने की अपेक्षा अधिक उत्तम है। जिन्होंने मिलकर अपना सध बना लिया हो, उनके साप खामर और दान को नीति का ध्यवहार करना चाहिए, बयोकि वे अडेय होते हैं। जिन्होंने अपना इस श्रकार का सघ न दताया हो, उन्हे दण्ड ओर भेद की नोति ये जोतना चाहिए । ( अ्शास्र, पृ० ६६६ ) इस विवरथ से अ्रतोत होता है कि जो यय या प्रजातस्त राज्य बलवान होते थे और मिलकर अपना सघात बना लेते थे, मौयों की एकराज ब्यवस्पा में भी थे स्वच्छर रूप से रहते ये, किन्तु सच्मतरहित राज्य भेद या दण्ड से वश मे क्ये जा सकते पै। यह भी पता चलता हैं कि उन सघवद गणो के साथ समानता का ब्यबहार किया जाता था और बावश्यक्षा होने पर सामान के द्वारा उदसे मित्रता बाँठकर उनसे सैतिक सहायता भो प्रश्म दो जाती दो। अशोक के शिनालेखो मे पाये जाने वाले योन, कदोज, ग्राधार, राष्ट्रिक, पिठितिक, नामक-भोड, आाप्त और पुलिद आदि ऐसे हो अवर्भुक्त




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