साहित्य और समाज | Sahitya Aur Samaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सल्सससल्सटसस: दाव्द श्रौर यथायें इस बात की जानकारी--कि दाव्दी वा श्रपना स्वतत्र इतिहास है, उनका झ्रपना स्वतत्र अस्तित्व है श्रौर उनका परम्परागत स्वरुप है--विज्ञान के क्षेत्र मे एक बहुत ही महत्वपूर्ण सोज थी । भाज दिन भी बहुत सारे लोग सोचते हैं कि झब्द स्वय सधार्थ है । जिस किसी रूप में वस्तु का सबोधन प्रचलित है, उसके श्रलावां उसका कोई दूसरा सबोधन हो ही नही सकता श्रौर जो वस्तु है उसे किसी श्रन्य दाब्द के द्वारा व्यक्त किया ही नही जा सकता ।. झाब्द श्रौर वस्तु मे एक भ्रलौकिक तादात्म्य निहित है । वे परस्पर किसी दविक सम्बन्ध से श्राबद्ध हैं । भाषा के परम्परागत विकास-क्रम से शब्दों का कोई सम्बन्घ नहीं है--इस प्रवार की मिथ्या घार- खाएँ भ्राज दिन भी प्रचलित है । किन्तु श्राज हम जिस वैज्ञानिक श्राघार पर इस धारणा को मिथ्या कह सकने की क्षमता रखते हैं, यही धारणा प्राचीन युग मे हमारे पूर्दजो वा विज्ञान थी । वे अ्रकृति भर बाह्य जगत को श्रपनी चेतना का ही झ्श समभते थे । चेतना वाणी द्वारा प्रगट होती थी, इसलिए वे बाणी वो ही चेतना मानते थे । वारणी को एक दँविक या पारलौकिक वस्तु समभते थे । उनका विश्वास था कि वारी द्वारा प्रकृति को नियनित किया जा सकता हैं। शब्दों थी भ्रल्नौकिक शक्ति पर उन्हे पूरी श्रास्था थी 1 शब्द ही उनके लिए यथायें था झौर इस शाब्दिक यथार्थ को थ्रपने झनुकूल बरतने के लिए वे उसी प्रूजा- शर्चेना बरते थे । प्रकृति से सामना करने के लिए यह दैविव' दाब्द ही उनका अौजार था । उनवी कला, उनका विज्ञान, उनका धघर्मे सभी कुछ शब्द ही में निहित था । धब्द की दाक्ति उनके लिए सबसे बडी यक्ति थी । वेदिक ऋचाओ




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