प्राकृत - प्रकाशः | Prakrit Prakash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.25 MB
कुल पष्ठ :
337
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पे )
प्रहृत पुस्तक अयथात् बरसुचि सूत्र एवं सामइचूत्ति-मनोरमा के प्रकाशन का आभार
शी रवराठू मद्दोदय की “प्रास्तावना” से शात होता है कि बाराणसेव राजकीय सस्झत
पुस्तकारूय--सरस्वती भवन की दस्तकिखित दो पुस्तकों हैं । प्रत्तुत सस्करण का आधार
उपयुक्त मददा्य द्वारा सपादित पुस्तक ही दै तथा नवीन व्याख्याओं कया, अवरूम्थ स्वर्य
ब्यासखूयाकार-लिखित पुस्तक है। अत एवं इस विषय में विशेष चर्चा की शानदयकता प्रतीत
नहीं होती ।
प्राकृत-प्रकाद! इस पद में प्राकृत शब्द का अर्थ क्या है! इसमें विद्वानों के दो मत
मालम पते हैं । प्रथम मत --प्रकृति अर्थात् प्रभागण, तत्सम्दन्धी भर्भाव, उनके पारस्परिक
ब्यबद्दार था बोल चार में भाने वाली भाषा प्राकृत पद का अर्थ है। उन्हींके सिद्धान्तानुसार
व्याकरण के नियमों से सस्कार पाकर शुद्ध ब सुन्दर बनी भाषा “सस्क्त' नाम धारण करती
है। द्विवोय मत ---प्राचीन समय, वैदिककारू से उपयुक्त होने बाली भाषा अथोंत सस्कत
ही प्रकृति अर्थात् मूल भाषा है भौर उससे आई या बनी रूपान्तर को प्राप्त धोने बाली माषा
प्राझत है । पूर्वोत्तर मतों में कोई भी मत ग्राझ् माना जाय, तो 'प्राकृत' ब्रइ नाम एक भाषा
का हैं जिसके अनेक भेद उपलब्ध हैं । उस प्राकृत भाषा के दाष्दों के साधुत्व को प्रकाश करने
वाला यह ग्रन्थ अपने 'प्राकृत प्रकाश” नाम को सार्थक बना रहा है ।
इस प्राकृत माषा के सिद्धान्तों को सूत्ररूप में नि्मित करने वालों में वररुचि, बाद्मीकि,
देमचन्द्र एवं त्रिथिक्रमदेव के नाम समुख आते हैं । उनमें बररुचि तथा देमचन्द्र को
सूत्रकर्ता मानने में कोई बाद विवाद नहीं । त्रिकिक्रिम देव के सम्बन्ध में एक मत है कि सूत्र
एवं बृत्ति दोनों उनकी हैं. और दूसरा मत है कि वाल्मीकि के सूत्रों पर इनकी ग्याख्या है
तथा दृतीय मत इस प्रकार दें कि देमचन्द्रप्रणीत सूत्रों पर इन्होंने व्याख्या की है। बहुत
से विद्वान् आदिकबि चास्मीकि कृत सूत्र मानने में पुष्ट प्रमाण के अभाव में सइमत नहीं हैं ।
परन्तु पड्माषाचन्द्रिकाकार १६वीं शताब्दी के विद्दान् श्री छक्ष्मीघर भपने अन्थारम्म के
पर्चों द्वारा श्री बर्मीकि आदिकंवि की ही सूत्र-निर्माता स्वीकार करते हैं भौर प्रमाणों से
यदि यदद बात सिद्ध दो तो इमलोगों को मी कोइ आपत्ति नहीं है ।
इस ग्रन्थ में मामइड्त्यलुसार बारह परिच्छेदों के सूत्रों की पूर्ण सख्या ४८७ है तथा
चन्द्रिका टीकानुसार २२ सूत्र अधिक हैं । किन्तु ऊपर लिखी सख्या में से ९ सूत्रों की चन्द्रिका
में उपेक्षा कर व्याख्या नहीं को गई है । अत उनके मत से ५०० सूत्र हैं । एव पूर्ण योग ५०९
सूत्रों का है । अस्तु, प्राकृतप्रकाश की ४ प्राचीन टाकाएं हैं, यथा--१ मनोरमा, २ प्राकृत मशरी,
३ प्राकृतसजीवनी तथा ४ सुबोधिनी । उनमें मनोरमा प्राची नतम है जिसके रचयिता भामद्द
हैं । वररुचि के समान भामदद के सम्बन्ध में ऐतिदासिक सामग्री के अमाव में परिचय कराना
अशक्य-सा हो रद है। दूसरी टीका प्राकृतमजरी पद्यात्सक नवम परिच्छेदान्त तक ही है
जिसके निमांता श्री कांत्यायन नामक बिद्दान् हैं । वे कौन थे ? किस समय में थे * इत्यादि
भी अस्पष्ट है, जैसा कि पूर्व के सम्बन्ध में । तीसरी टीका प्राकृतसकीवनी नामक है । यइ मो
नवम परिष्छेदान्त दो है। इसके रचयिता श्री बसन्तराज हैं। इनका परिचय सी पूर्व बरती
ब्याख्याकारों के समान दुछंम है। एवं चौथी टोका ओऔसदानन्दनिर्मित धुवोधिनी है, जो
नवम परिच्छेद के नवम सूत्र की समाप्ति के साथ समाप्त हुई है । अन्तिम दोनों टोकाएँ
वाराणसी के सरस्वतीमबन से 'सरस्वतीमवन-धन्थमाला! के १९वें पृष्प के दो भागी में
प्रकाशित हुई है ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...