राज - योग - विद्या | Raj - Yog - Vidya

Raj - Yog - Vidya by पं सत्येश्वरानंद शर्म्मा लखेड़ा - Pt. Satyeswaranand Sharmma lakheda

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सविपय घवेदा । ु पर लूड़ने सगड्ने याले कोई भी ार्मिक सिद्धान्तों का स्वयं जनज्ुसच कर उसके अन्तस्तछ तक नहीं पहुँचे हे 1 सब के सब दी अपने पूर्व पुरूपाओं के कुछ देश काल पात्र के अजुसार पथ चाहा आदयार च्यवदारों को लेकर ही सन्लुए रदे और उनमें खिदेष दुराप्रह यह रद1 कि और सब शी हमारे जैसा ही आचार च्यवद्दार स्वीकार फर धार्मिक थधने। जिसको आत्मंदेव फी अनुभूति या ईश्वर साक्षात्कार नहीं छुअ। दे उसको आत्मा या ईश्वर कदने का अधिकार ही पंया है ? पर्थोफि यदि ईश्वर हो सो उनको देख छेना चाहिये और यदि आत्मा नाम से कएलाने घाला कोई पदार्थ हो तो ध्रत्येफ ईश्वर या आत्म चिश्वासी को उसकी उपलब्धि-साध्तात्कार कर लेना चाहिये । यदि पेसा न होफर फेचल दंगा फिसाद या घार्दाचय।द के लिये ही ये पद हों तो इन पर विश्वास न करना दी डीक दोगा। जिससे जनता का अधिरकॉदश उद्धग अदवान्ति च व्यर्थ की मार काट तो चन्द होजायं 1 पंयोंकि पाखण्डी की अपेक्षा स्पष्ट चोलने घाठा नार्तिक कई शुना अच्छा हुआ करता है । आजकक के विद्ञान कदकर परिश्चित छोगों के मन का एक तंरफ तो यदद साव है कि धर्म दर्शन घ परमं-पुरुप के अजुसः न्घान में उगना यह सब सिप्फछ हे । दूसरी ओर जॉं शिक्षित हैं उनके -मन का भोच यह मालूम होता है कि धर्म च दर्शन आदि की चारतच में कोई सिन्ति दी नदीं है परन्नु सकिर भी उनकी इतनी आावदयकता जरूर दै किं थे केवछ




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