अवधी - कोष | Avadhi - Kosh

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Avadhi - Kosh by श्री रामाज्ञा द्विवेदी 'समीर'- Shri Ramagya Dwivedi 'Sameer'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गे घजर-झनटी |] अधजर वि० पं० आधा जला हुआ; जा ० (पढु* २०, ७२, २२, १४), स० छाधज्वलित | चधस्ा सं पं ० झाघ आाने का सिक्का, स्त्री ०-ननी स० घध + साना | अधपडे सं० स्त्री आध पाव का तोल, चे०-वा (पं०) सं+ अघ +-पाव (दे०) । घी सं० स्त्री आधी बाँह की गंजी, कमीज़ आदि, वे० हियाँ,-बादीं, स० झधे +-बाँह (दे०) । च्घबुद वि० पं० अधघेढ़, आधा बूढा-; स्त्री०-ढ़िं सं० झघं +दइद्ध । अधघसइई सं० स्त्री अधमता; वेसे 'अधम' कस बोला जाता है, सं० अघधस+-ई उअधघरस सं० पं० अधमे,-करव;“दोव, दि०- सी, दे० बेघरमी, स० | अधवा दि० याघा, स्त्री०-दे, सं+ अरे । अधघबाइब क्रि सं+ आधा कर देना, आाधा बॉ या समाप्त कर लेना, सं० अधे, वे ०-उब,-धिचा,-सं० | अधार सं० प॑० झाघार, भरोसा, परस प्रिय या अंतिम आधार की चस्तु, जिउ क-; जीवन झाधदार प्रान-, समाणों का झाधघार, सं० । ्धिआ सं० प॑ ०. एक प्रणाली जिसके झनचुसार खेत, वाग या पु का सालिक उसे दूसरे को सौंप देता है श्रोर उपज सें उसे श्ाधा दिस्सा देता है,-पर देव, इस प्रकार गाय, खेत आदि देना चे०-या, सं० अर्ध । किए स० प० आधा डिस्सा, व०-या-स० घ्परघ । अधिय्याव क्रि० अ० आधा हो जाना, आधा समाप्त हो जाना या चुरा जाना, प्रे०-दुब, उब वे०-याव, सं० । अधिआर सं० पं० आधे का हिस्सेदार, स्त्री०-रि, रिनि,नन, भा ०-री, वे०-यार, सं० अरे | व्प्धिकट्टे सं० स्त्री अधिकता, वे ०-काई, सं० अधिक +-ई। घ््रघिकाब क्रि० झ० अधिक हो जाना, सं० । अधिकार वि० पुं० बहुत, अधिक, स्त्री ०-रि, भा ०- री; झधिकता, सं० अधिक +- आर । घ्धघिकारी सं० स्त्री बदुतायत, अधिकता,-होब; स० झधघिक-+-आारी । 'प्रथधिरजी वि० खाने-पीने में उतावला एवं लालची, - अधिक खाने वाला, जददी खाने वाला, सं० अधघीर, अपेये + है । घाघीन वि० सातइत, अधिकार में, नीचे, सं० । ब्घेड दि० प० छाधी छवस्था वाला, स्त्री०-ढि सं० अघ । 'अधेडी सं० स्त्री एक रोग जो वढ़े-अडे गीले दानों के रुप में कमर के एक ओर या कमर से गले तक कहीं सो होता है, कभी-कभी आधी कमर में केत्ल दादिनी ओर दी दाने होते हैं,-होत्र । संँ० अघध । न [ ९ अधेला सं० प॑० झाधा पैसा, यक-.-लौ न, कुछ भी नहीं; घू०-लचा,-ची; सं० अं । च्धेत्ती स० स्त्री झाघा रुपया, अठनी, सुका; आठ आना, चार झाना; सूका-, दे० सूका;) सं० दे । धोखा दे० अधघउखा । ््नकन क्रि० स० कान लगाकर सुनना, दूर से सुचना, जो कठिनता से सुना जा सके उसे सुनना कान केक एवं न का विपर्यय हुद्या है; सं० घ्मा + करण | झकनि रास पु घारे (तु०) | अतनछुस सं० पं० कष्ट,-लागव, बुरा लगना;-मानव क्रि०-साव, रुप्ट होना; न्न० अनखाव, सं० अकुश, दे० किस । अनकूत वि० जिसका अनुमान न लग सके, जो कूता न जा सके, दे० कूतब, सं० अन +- कूतब । तनखाती वि० जो कुछ न खाय: क्रोध में न खाने वालो के लिए प्राय, प्रयुक्त, सं०अन + खाब । अनगढ़ वि० जो गढ़ा न दो, खुरदरा, सं० अन+- राढ़य (दे०) | नगनती वि० अनणिनत, वे०-शि-, सं० अन +- गनती [जिसकी 'गनती” (दे०) न हो] सं० अगखित | नगव क्रि० स० (खपरेल की छुत) सरम्मत करना, प्रे०-गाइब,-गवाइब,“उच , वे०-ढब । अनगयर वि० प॑ ० दूसरा, झपरिचित; स्त्री०-रि, ये०-गेर, स० अन ।-झअर० गैर, सं० अन+ झ० ग़ेर (दूसरा), सं० का “झन' निर्थक है | 'नचिन्हू वि० झपरिचित,-मनई; अपरिचित व्यक्ति -सानब, सं० अन +- चीन्द (दे०चीन्दब) । ततजउरा सं० पं० व घर जहाँ श्नाज रखा जाय, झनाज का भरडार, किसी किसान की खेती में हुए सारे अन्न की राशि, वे० झं-; सं० अन्न + जदर (दे० जवरा) । घ्य्जल सं० पं ० रहने का अवसर, दोब,-रहब,- पानी, निवास, सं० अन्न + जल (भोजन या जीवन की दो आवश्यकताए ), दे० दाना-पानी। अनजह्ा वि० पं ० जिससे झनाज पढा दो (भोजन; सिठाई थ्रादि), जिसमें अनाज रखा जाता हो (बर्तन), स्त्री -दी, वै० झंज-, सं० अन्न । घ्प्लजह्दी सं० स्त्री अनाज देने का कारबार, सूद पर अनाज भी उधार दिया जाता है,-चलव, दे० विंसरदही, विसार, सं० । घ्यतनजाद सं५ पं० झनुसान, फा० “अन्दाज़” का विपर्वय, वे५ अजाद, क्रि०-दव, दे? अनदाजब । नजान वि० न जाना हुआ, में, अज्ञान की स्थिति में, बिना जाने, सं० अशान । प्प्रचजाने क्रि० दि० बिना जाने, सं० अज्ञाने । अनटप सं० पुं० मनसुदाव, भीतरी बेर, अज्ञात बैर, राखव, स० मंतः । घ्यूनूटी सं० सन्नी घोती का वह भाग जा कमर के




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