संजीवनी विद्या | Sanjivani Vidya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५५. प्रजोत्पादन और आत्म-संजीवन छूट गया जब कि वीयंकी रक्षा और पवित्रताकों सबसे अधिक महत्व दिया जाता था, ओर अब आचरणमें तो प्रायः पूर्ण रूपसे और तात्विक विचारों तकमें बहुत बड़े अंश वह सहत्व प्रायः नष्ट सा दो गया हे । ब्रह्मचये- आश्रम अथवा विद्यार्थी-जीवनमे ही अब युवकोंका मन विषय-वासनाके जाछमें फैंस जाता हैं । दहरोंकी भीड़-भाड़मे रहने, उपन्यास, नाटक आदि पढ़ने, सिनेमा आदिके दइय देखने तथा इसी प्रकारके दूसरे दृश्य अर श्राव्य उत्कट शुंगारके कारण नवयुवक विद्यार्थियोंका मन पवित्र और स्थिर रहना प्रायः असम्भव हो गया हैं। ग्रदस्थाश्रममे विवाहितोंसे तो इसका अतिरेक सभी जगह देखा जाता है, साथ ही अविवाहितोंमें भी विचारोंकी पवित्रता कम होती जाती है और नीति-विरुद् आचरण बढ़ता जाता है + संन्यास आश्रम तो अब प्रायः रह ही नहीं गया है । अनेक प्रकारके वैषयिक विचारोंसे लोगोंका मन कलुपषित होने लगा है और स्वग्नदोप, हस्तक्रिया» अति ख्त्री-सम्भोग और ब्यमिचार तथा वेडया-गमन आदि मार्गोीसे समाजकी भीषण वीय-हानि होने लग गई है। इस बातकी करुपना कदाचित्‌ बहुत ही थोड़े छोगोंको होगी कि यह हानि कितनी व्यापक है और इससे कितनी बड़ी क्षति हो रही है । यह विपय बढुत ही सूक्ष्म है। सम्भव हे कि बहुतसे लोगोंको अनेक कारणोंसे इस सम्बन्घकी कहीं हुई बाते अप्रिय जान पड़े, और प्रायः सब जगह यहीं साहजिक प्रवृत्ति देखनेमें आवेगी कि इस प्रकारके पुराने विचा- रोंको जहाँका तहों रहने दिया जाय । ऐसी स्थितिमे दिष्टाचार और शिष्ट कठुपनापर आघात न करते हुए हम यह अप्रिय सत्य शाख्रीय रीतिसे और दाकंरासे अवगुंठित करके लोगोंके समध्ष उपस्थित करते है और जिन लोगोंको इस प्रकारके विचार अच्छे नहीं लगते. उनसे क्षमा मॉगते हुए इस विपयका कक, विवेचन आरम्भ करते है । वीयेके अपव्ययके हमने ऊपर चार मार्ग बताये हैं । परन्तु उन चारोंका विवेचन करनेसे पहले हम यहीं यह बतला देना चाहते हैं कि झरीरमे वीये किस प्रकार उत्पन्न होता है और उसका शास्त्रीय या वैज्ञानिक दृष्टिसे क्या महत्व है ।




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