कल्याण [वर्ष ७१] | Kalyan [Year 71]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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+कूर्मपुराण और सनातनधर्म * [९७1 कह कम क कक ५ हक कह फ कद ही कस ऊ कक का कक क कक फ़ फू कफ भा कक ऊ 5 कक का क की 5 र्क कख का क का के का कर का का कर का क क; का कर सी कफ कर कर का की की कर कक के हक के सृष्टिकी स्वाभाविकता, पर्वत, सूर्य-चन्द्र तथा कलियुगके भावी स्वरूपके साड्रोपाड्र-निदर्शक होनेके साथ-साथ कूर्मपुराण साम्प्रदायिक एकताका निर्विवाद सदेशवाहक है, क्योंकि यह वह पुराण है, जिसमे शैवो तथा वैप्णवोमे कोई विवाद दृष्टिंगोचर नहीं होता। विद्वानोके अनुसार यद्यपि कूर्मपुराण एक शैवपुराण है, फिर भी इसमे शिव तथा विप्णुें अभेद स्वीकारते हुए कहा गया है कि-- 'एुकीभावेन पश्यन्ति योगिनों ख्रहमवादिन । त्वामनाश्रित्य विश्वात्मनू न योगी मामुपैष्यति ॥ श्द रद रश तथेत्युक्वा महादेव... पुनर्विष्णुमभाषत। भवान्‌ सर्वस्य कार्यस्य कर्ताहमथिदैवतम्‌ ॥ मन्मथ त्वन्मय चैव सर्वभेतन्न सशय । 'भवान्‌ सोमस्त्वह सूयों भवान्‌ रात्रिरह दिनम्‌॥ भवान्‌ प्रकृतिरव्यक्तमह पुरुष एवं च। (कूर्मपुणण १। ९1 ८६ ८२--८) अर्थात्‌ जो ग्रह्मवादी योगीजन हैं, वे हम दोनोको 'एकीभावसे देखा 'करते हैं । हे विश्वात्ममू आपका आश्रय अहण किये बिना योगी मुझे नहीं प्राप्त करेगा। भगवान्‌ शिवने विष्णुजीसे कहा कि आप समस्त कार्योके करनेवाले हैं और मैं उमका अधिदैवत हूँ। (ससारका) सब कुछ नि सदेहरूपसे मेरा और आपका ही स्वरूप है। यदि आप सोम हैं तो मैं सूर्य हूँ, आप रात्रि हैं तो में दिन और आप अव्यक्त हैं तो मैं पुरुष हूँ। 'ठीक इसी आशयका वर्णन ईश्वरगीतामे भी देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त कूर्मपुरणमे अद्वैत वेदान्तके सिद्धान्तोका भी बहुधा उल्लेख है, जैसे-ब्रह्मस्वरूपके निरूपण-प्रसगमें-' अणोरणीयान्‌ महतो महीयान्‌' एव *वेदाहमेत पुरूष महान्तमादित्यवर्ण पुरुष पुरस्तातू' आदि उपनिषद्‌- वाक्योंका कूर्मपुराणमे ज्यो-का-त्या प्रयोग दिखायी पडता है। कर्मपुराणके वर्ण्यविपयोका सूक्ष्मतासे अध्ययन करनेपर प्रतीत होता है कि पुराणकारको केवल अध्यात्म, सृष्टि एव 'बश-वर्णनकी चिन्ता ही नहीं, बल्कि उन्हे पर्यावरणकी दृष्टिसे समाजके मानसिक एव बाहा स्वच्छता तथा स्वास्थ्य- रक्षाका भी ध्यान था। इसीलिये उन्होने कूर्मपुराणम स्नान, भोजन शौघ स्पर्शास्पर्श शयन आहार-विहार, सदव्यवहार, सत्य और अहिसाका पालन उच्च विचार पाप-पुण्य एवं शक! मनोभावोकी *शुद्धताके सम्बन्धमे स्थान-स्थानपर गम्भीर चर्चाएँ की हैं, जिससे समाजके बाह्य और आभ्यन्तर दोनो पक्षोमे शुचिता आ जाय। इसी कारण यहाँ क्रोध,मीह, मद, लोभ, दम्भ, निन्‍्दा तथा ईर्ष्या-द्वेपादिका विरोध और सौहार्द, सहयोग, त्याग, दान एवं परोपकारादिकों पुण्यप्रद होनेका समर्थन किया गया है तथा गायत्री-मन्त्रके जपको द्विजत्वका प्रधान चिह्न स्वीकारते हुए ब्राह्मणके लिये गायत्रीकी महिमाको पूर्णत प्रतिष्ठित किया गया है। यथा-- गायत्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी। न गायत्या पर जप्यमेतद्‌ विज्ञाय मुच्यते॥ (कूर्मपुराण २1 १४1 ५६) अर्थात्‌ लोकपावनी गायत्री वेदाकी जननी है तथा द्विजके लिये गायत्रीके जपसे बढकर अन्य कुछ भी नहीं है। इसके अतिरिक्त भगवान्‌के सगुण और निर्गुण उपासनाके पारस्परिक मतभेदोका परिहार 'करते हुए कहा गया है-- गीयते.. सर्वशक्त्यात्मा शूलपाणिर्महेश्वर ॥ 'एनमेके ... बदन्त्यग्नि... नारायणमथापरे। इन्द्रमके परे विश्वानू म्रह्माणमपरे जगु ॥ , ब्रह्मविष्णवग्निवरुणा.. सर्वे देवास्तथर्षय । 'एकस्यैवाथ रुद्रस्य भेदास्ते परिकीर्तिता ॥ (कूर्मपुराण र। ४४ं। ३५-३७) अर्थात्‌ समस्त देवशक्तियाँ वस्तुत एक ही हैं। अपनी भावना और बुद्धिकि अनुसार उसी एक शक्तिको कोई अग्नि कहता है, कोई नारायण, कोई इन्द्र, विश्वेदेव या ब्रह्मा कहता है, कितु ये सभी देवता और ऋषि एक ही भगवान्‌ रुद्रके भेद हैं। इस प्रकार सनातन वैदिक धर्म, भारतीय सनातन सस्कृति राष््रियता एवं परम्परा तथा भारतीय पुराण- विज्ञानके उद्दाहक कूर्मपुराणका हिन्दी-अनुवाद-सहित प्रकाशन न केवल पुण्यप्रद है, अपितु सनातन वैदिक धर्म दर्शन तथा सस्कृतिके प्रचार-प्रसारम अभूतपूर्व योगदान भी है। कहना न होगा कि ऐसे पवित्र कार्योको ही सनातनधर्मके प्रति समर्पण--प्रणिपात कहा जाता है। मैं इस परम पावन कार्यके लिये सम्पादक एवं सम्पादक-मण्डलको आशीर्वाद देते हुए भगवान्‌ द्वारकाधीश तथा चन्द्रमौलीश्वरसे प्रार्थना करता हूँ कि वे इन्हें ऐस सत्कार्योकि लिये सतत प्रेरणा और शुभ अवसर प्रदान करते रह। सतसररिफिरिसििरिस्लसल का डे




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