जैन दर्शन (१९६६)अ क ५८८७ | Jain Dharashan (1966)ac 5887

Jain Dharashan (1966)ac 5887 by महेंद्र कुमार जैन - Mahendra kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र जेनदशेन को सत्ताको माननेवाला आस्तिक और न माननेवाला नास्तिक कह- लाता है । स्पष्टत इस ध्रर्थमे जैन और बौद्ध जैसे दर््नोकों नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता । इसके विपरीत हम तो यह समझते है कि शब्द- प्रमाणकी निरपेक्षतासे वस्तुतत्वपर विचार करनेके कारण दूसरे दर्शनोकी अपेक्षा उनका अपना एक आदरणोय वैशिष्ट्य ही है । जैनद्दनकी देन भारतीय दर्शनके इतिहासमें जैनदर्शनकी अपनी अनोखी देन है । दर्शन दब्दका फिलासफीके अ्थमे कबसे प्रयोग होने लगा है इसका तत्काल निर्णय करना कठिन है तो भी इस दाब्दकी इस अर्थमे प्राचोनताके विषयमे सन्देह नहीं हो सकता । तत्तद्‌ दर्शनोके लिये दर्शन शब्दका प्रयोग मूलमे इसी अर्थमे हुआ होगा कि किसी भी इ्द्रयियातीत तत्त्वके परीक्षणमें तत्तद्‌ व्यक्तिकी स्वाभाविक रुचि परिस्थिति या. अधिकारिताके भेदसे जो तात्तविक दृष्टिभेद होता है उसीको दर्शन दाब्दसे व्यक्त किया जाय । ऐसी अवस्थामे यह पष्ट है कि किसी तत्त्वके विषयमे कोई भी तास्विक दृष्टि ऐकान्तिक नहीं हो सकती । प्रत्येक तत्त्वमं अनेकरूपता स्वभावत होनी चाहिये और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्त्विक प्रति- पादन नहीं कर सकती । इसी सिद्धान्तकों जैनदर्शनकी परिभाषामे अने- कान्त दर्गन कहा गया है। जैनदशनका तो यह आधारस्तम्भ है ही परन्तु वास्नवमे प्रत्येक दार्शनिक विचारघाराके लिये भो इसको आवश्यक मानना चाहिये । बौद्धिक स्तरमें इस सिद्धान्तके मान लेनेसे मनुष्यके नैतिक और लौकिक व्यवहारमें एक महत्त्वका परिवर्तन भा जाता है। चारित्र ही मानवके जीवनका सार है। चारित्रके लिये मोलिक आवश्यकता इस बातकी है कि मनुष्य एक ओर तो अभिमानसे अपनेको पृथक रखे साथ ही होन मावनासे भी अपनेको अचाये । स्पष्ट. यह मार्ग अत्यन्त कठिन




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