सिंहावलोकन भाग - ३ | Singhavlokan Part Iii
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30.17 MB
कुल पष्ठ :
187
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दल की रक्षा के लिये आजाद के प्रयत्न १७ प्रकाशवती को घर से आये केवल पांच ही मास हुए थे । अभी तक वे पार्टी के स्थानों ही में रही थीं या एकाध बार हम से सहानुभूति रखने वालों के यहां । अभी उन्हें फरारी का अनुभव कम ही था । बाद में तो वे फरार रहते नाम बदल कर अध्यापिका का काम कर अपना निर्वाह भी करने लग गयीं । वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय कांग्रेसी असहयोगियों का अड्डा था । वेसे भी वह अंग्रेजों के पुराने विद्रोही राजा महेन्द्र प्रताप की जागीर थी और शायद शिक्षा के काम के लिये एक टूस्ट के हवाले कर दी जाने के कारण ही जब्त नहीं हुई थी परन्तु खुफ़िया पुलिस की नजर इस संस्था पर अवश्य रहती थी । वहां प्रकाशवत्ती का अधिक दिन ठहरना उचित न था । मौके की बात आचायें जी के यहां कालिज का पुराना साथी और दोस्त मनोहरलाल खन्ना मिल गया | मनोहर भी हमारे दल के लिये जयचन्द्र जी द्वारा चुने हुये पुराने लोगों में से था । मनोहर को जयचन्द्र जी ने विदेश आने-जाने या विदेशों से रास्त्र मंगा सकने का मार्ग बनाने के लिये कुछ दिन बम्बई और लंका में रहने के लिये भेजा था पर कोई सुंतोष- जनक काम करने को नहीं बताया । समय व्यर्थ जाता देख वह अलग हो गया था । जयचन्द्र जी द्वारा दीक्षित परन्तु साथ न रह सकने वाले और भी अनेक साथी हमें बाद में कुछ न कुछ सहायता देते रहे । मनोहर को फामिंग का शौक था । उन दिनों वह बुलन्दशहूर जिले में प्रेम महा- विद्यालय के गांवों भर फाम का सेनेजर बन गया था । उसका दफ्तर या कचहरी बराल गांव में थी । उसने अपने यहां रानी के रहने की सुविधा कर देने का आइवासन दिया । प्रकाशवती आचार्य जी के यहां आकर रही तो उन्होंने उसे रानी नाम दे दिया । इसके बाद अपने परिचितों में उसका यही नाम चल पड़ा और अभी तक चला आता है । मनोहर आरम्भ से ही सुरुचि और सलीके का आदमी था । अब गांवों और फार्म का मंनेजर होने और बड़ा आदमी समझा जाने के कारण रहता भी साहबी ढंग से था | हैट बिचिस और घुटनों तक ऊंचे बट । बहुत दिनों की तनाव की जिन्दगी के बाद मनोहर के यहां कुछ समय आराम और बेफिक्री से रहने को मिला । मनोहर के पास पिस्तौल और शिकारी बस्ट्रक का लाइसेंस भी था । उसकी स्थिति भी ऐसी थी कि वहां पिस्तौल को हरदम छिपायें रखने की चौकसी की भी जरूरत न थी । निर्इिचित जितना सोया जा सकता सोने खाने के लिये भी कमी नहीं थी । मैं भी वायसराय की स्पेशल के नीचे विस्फोट के समय पहनी हुई बिचिस और बूट ले आया था । बड़े ठाट से बिधिस बुट पहुन कर बंदरक ले झाड़ियों में शिकार के लिये निकल जाते । शिकार से मतलब कोई चीते सुअर का नहीं यहीं चिड़ियों का निरापद शिकार । साथ में शिकारी भंगी भी रहता ।
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