राजेन्द्र यादव के दो लघु उपन्यास | Rajendra Yadav Ke Do Laghu Upanyas

Book Image : राजेन्द्र यादव के  दो लघु उपन्यास - Rajendra Yadav Ke Do Laghu Upanyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श् दो लघु उपस्पास और यही दिन है**' इस कम्वरत वीनू ने यह पलट भी तो उसी तरह का लिया है, सब कुछ उसी तरह सजा रखा है । दी यो तो सारे व्लॉकों के पलों की डिजाइने एक जैसी हैं; लेकिन पहली बार जय मैं मेजर तेजपाल के पुरलेंट मे गया था तो. कितना फ़क लगा था कि दीवारें, बरामदा, कमरे, एक डिजाइन के होकर भी, सब कुछ वे ही नही हैं जो नीचे वाले हमारे फ्लैट के 1 ***उनके यहाँ हमारा खाना था । ह हमने घण्टी बजाई । मैं, वीज्ू झऔर रणघीर--तीनों सीढ़ियों परे खड़े थे । इंतज़ार था कि दरवाजे के धुघले चूंदोंवाले काँच के पीछे छाया दिखाई दे झौर किवाड़ खुलें । कोई नहीं भ्राया । वैरा व्यस्त होगा । वैसे भी यहाँ का यह क़ायदा है । नीचे टूर से देख लेने पर भो दो-तीन वार घण्डी वजानी पड सकती है । क्योंकि किवाड़ वैरा ही सोलता है । दूसरी घण्टी वजाई तो वेरे ने भपटते हुए किवाड़ खोले । मैं नवीं वार नेम-प्लेट को पढ़ रहा था । पूछा : हूँ १?” हाँसाव ! ” रणधीर के लिए उसने एड़ियाँ ठोककर सैल्यूट भाड़ा और झ्रदव से एक श्रोर हट गया । हम लोग वरामदे में आ गये । ड्राइंग- रूम में घूसते हुए जिस चीज़ पर मेरी निगाह सबसे पहले पड़ी थी, वह थी दो दरवाजो के वीच की जगह मे ऊपर लगा हुआ फूल । दोनों दरवाजों के ठीक ऊपर वार्हसिघो के दो बड़े सिर लगे थे । वीच के फूल को देखते ही जैसे बिजली का घकका लया आ्ीर मन एक श्रजीव दहशत से भर उठा । फिर भी मै उसे कुछ क्षण देखता रहा । छह इंच से लेकर आधे इंच सम्वी, वन्द्रकों और पिस्तौलो की गोलियों को नम्दे के सुखे टुकड़े पर जमाकर यह डिजाइन बनाई गई थी । पीले-पीले पीतल! के चरीर झौर सिलेटों जस्ते की चोचें । गोलियों पर पॉलिंड भी होती




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