कौटिल्य अर्थशास्त्र | Arthasastra Of Kautilya And The Canakya Sutra

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Arthasastra Of Kautilya And The Canakya Sutra by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) अनुकरण द्वारा धन और आनंद की उपलब्धि हो सकती है” ( डांगे पृ० दप-९२ ) । उत्पति और श्रम का विभाजन : यद्यपि आदिम साम्यसंघ की उत्पादन- शक्तियों में विकास हो रहा था; फिर भी श्रम की मात्रा बढ़ जाने पर भी जीवन में दरिद्रता बढ़ रही थी । सत्र श्रम के द्वारा जो श्रम-विभाजन की व्यवस्था थी भी उसके द्वारा ऐसी आशा नहीं थी कि जीवन में एक ऐसी स्थिति आ सकेगी, जिससे स्थायी रूप से आर्थिक हित का विकास हो सकेगा । यद्यपि इन उत्पादन के आर भिक साधनों में विकास नहीं हो पाया था; तथापि सारे उत्पादन पर उत्पादकों का ही नियंत्रण था । उत्पादन के इन अविकसित साधनों के कारण आदिम साम्यसंघ ( कम्युन ) में श्रम-विभाजन की रीति का अभाव रहा । इसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी था कि तब तक समाज में न तो वर्ण-भेद की विधायें पैदा हुई थीं और समाज का आकार बहुत छोटा था । पूरे साम्यसंघ का निर्माण विशों ( बस्ती के निवासी ) द्वारा होता था । आदिम साम्यसंघ में विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति और श्रम-विभाजन की प्रणाली का उदय धीरे-धीरे हुआ । सत्र यज्ञों के युग में हम. इतना अन्तर अवश्य पाते हैं कि जहाँ पुरुषों का कार्य शिकार करना, युद्ध करना, पशु- पालन था वहाँ नारी घर का प्रबन्ध करती थीं, भोजन बनाती थीं, पशुओं को पालती थीं और बस्ती की निकटतम भूमि में अन्न उपजाती थीं । किन्तु ये इतने अस्पष्ट प्रमाण हैं कि इनके द्वारा ठीक तरह से श्रम-विभाजन की वास्तविक रूपरेखा नहीं समझी जा सकती है । वस्तुत: यज्ञ के अनुयायी आयाँ का प्राचीन समाज एक गण-संघटन था । उस संघटन के सभी सदस्य कुटुम्ब से एवं रक्त से संबंधित थे और उसको स्वयंचालित सशस्त्र संघटन कहा जा सकता है । इस प्रकार के प्राचीनतम दस गण थे, जिनके नाम हैं : यदु, तुवश, दुह्म, अणु, पुरु, अंग, बंग, कलिंग, पुंद्र और सुह्मा । विवाह सम्बन्ध : आर्य-समूहों के संघटन का एक ठोस आधार गोत्र दाब्द से प्रकट होता है । हिन्दुओं की विवाह-संबंधी व्यवस्था के लिए सगोत्र-असगोत्र को दृष्टि में रखना आवश्यक होता है। अपनी आदिम अवस्था में आये लोग अपने गोत्र के अंतर्गत ही विवाह करते थे; किन्तु बाद में, जब कि वे जनसंख्या में बढ़कर अलग-अलग क्षेत्रों में फैल चुके थे और उनका आधिक स्तर तथा




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