कारागार से पिता पत्र | Karagar Se Pita Patra

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Karagar Se Pita Patra by सतीश चन्द्र मित्तल - Satish Chandra Mittal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १६ 3 और जो श्र उद्योग-धन्धों की. दिद्या प्राप्त कर सकते हैं वे बायल्ोजी ( छांण05# ) प्राणिशास्त्र में शपने को खपा रहे हैं। एक यकील साइय ने एम एस-सी० प्राशिशास्त् में किया, कभी फिर एल० एल बी० पास करके कचहरी के वारस्म की कसी दौड़ने लगे । उनसे प्राणि-शास्त्र के विपय में पं छिये-वद कहूँगे मैने यद्द विपय पढ़ा ज़रूर था। पर झब मुझे कुछ याद नहीं रददा। ग्र तो उसका कुछु काम दी नददीं पढ़ता । हे जीवन में पूक घारा द्ोभी चाहिये यानी उसमें परस्पर विरोधी यातों में जीवन की शक '्रौर समय का दुस्परयोग नहीं दोना ्वाहिये । उनके लिये इस वात की श्ावश्यफता है कि थे आपने को समुदद को लहरों पर दैरनेवाले उस तरते की तरह न यनाएँ) जो लचमहीन कभी इधर कभी उधर धूमता फिरता है पर धूमता उसी छोटे दायरे मैं है श्रौर धन्त में उसी संघर्ष में भष्ट दो जाता है। तुम्हे झपने जीवन का लघ्य निश्चित करना चाहिये । शिक्षा, धन) स्वास्थ्य सामाजिष्ट कर्तव्य, और अध्यास्म सब के लिये उचित स्थान रखना चाहिये और इस योजना में अपने मे शनुभवी ये ब्यग्ियों की सलाद लेनी चाहिये । उनको सद्ायता भर परामरी से एक चतुर नाधिक फी सरहद 'पनी जीवन नोका को एक मिश्चित लचयें की शोर खेना चादिये । तुर््े धपनी इस योजना में समय-समय पर परिवर्तन करने की दावश्यकता द्ोगी; परन्तु यदि सुम लघय को सामने रवस्तो तो तुम इधर-उधर भटकने से अवश्य याद ज़ादयोगे ।




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