गीता - प्रवचन | Geeta - Pravachan
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.26 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhave
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हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ गीता-प्रवचन विचार उसे पहनाता है । यही हाल अर्जुन का हुआ । अब वह भूठ-मूठ प्रतिपादन करने लगा कि युद्ध वास्तव मे एक पाप है । युद्ध से कुलच्षय दोगा । धर्म का लोप होगा स्वैराचार मचेगा व्यभिचार-वाद फैलेगा अकाल झा पड़ेगा समाज पर तरह-तरह के संकट झावेंगे--आादि श्रनेक दुलीलें देकर वह कृष्ण को ही समकाने लगा । यहाँ सुके एक न्यायाधीश का किस्सा याद झाता है । एक न्याया- घीश था । उसने सेकड़ो अपराधियों को फाँसी की सजा दी थी । परन्तु एक दिन खुद उसी का लड़का खुन के जुर्म मे उसके सामने पेश किया गया उस पर खून साबित हुआ व खुद अपने ही लड़के को फॉसी की सजा देने की नौबत उसे आ गई । तब वह हिचकने लगा । वह बुद्धिवाद बघा- रने लगा-- यह फॉसी की सजा बडी झमालुष है । ऐसी सजा देना मनुष्य को किसी तरह शोभा नहीं देता । इससे अपराधी के सुधार की श्ाशा नही रहती । इसने भावना के आवेश मे जोश-उत्तेजना में खून कर डाला है । परन्तु जब खून का जनून उतर जाता है तब उस व्यक्ति को संजीद्गी के साथ फॉसी के तख्ते पर चढ़ा देना समाज की मनुष्यता के लिए बडी लड्जा की बात है बड़ा कलंक है आदि दलीले वह देने लगा । यदि अपना लडका उसके सामने न आया होता तो वह॒न्याया- घीश साहब बेखटके जिन्दगी भर फाँसी की सजा देते रहते । किन्तु श्राज अपने लडके के समत्व के कारण ऐसी बातें करने लगे । वह आवाज झान्तरिक नहीं थी । वह आसक्ति-जनित थी । यह मेरा लडका है इस ममत्व में से वह वाड्सय निकला था । शजुन की गति भी इस न्यायाघीश की तरह हुई । उसने जो दलीलें दी थी वे गलत नहीं थी । पिछले महायुद्ध मे सारे संसार ने ठीक इन्हीं परिणामों को प्रत्यक्त देखा हैं । परन्तु यहाँ सोचने की बात यह है कि चहद झजुन का तच्व-ज्ञान (दर्शन) नहीं किन्तु कोरा प्रज्ञावाद था । कृप्ण इसे जानते थे । इसलिए उन्होंने उन पर भी जरा ध्यान न देकर सीधा उसके मोदद-नाश का उपाय खुरू किया । थ्रजुंन यदि सचसुच अदिसावादी
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