सुभाषित रत्न संदोह प्रवचन भाग - १, २, ३ | Subhashit Ratna Sandoh Pravachan (bhag - 1 2 3)

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Subhashit Ratna Sandoh Pravachan (bhag - 1 2 3) by पवन कुमार जैन - Pavan Kumar Jainश्री गुरुवर्य्य मनोहर जी - Shri Guruvayya Manohar jiश्रीमद मितगति आचार्य - Srimad Mitagati Aacharya

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

पवन कुमार जैन - Pavan Kumar Jain

No Information available about पवन कुमार जैन - Pavan Kumar Jain

Add Infomation AboutPavan Kumar Jain

श्री गुरुवर्य्य मनोहर जी - Shri Guruvayya Manohar ji

No Information available about श्री गुरुवर्य्य मनोहर जी - Shri Guruvayya Manohar ji

Add Infomation AboutShri Guruvayya Manohar ji

श्रीमद मितगति आचार्य - Srimad Mitagati Aacharya

No Information available about श्रीमद मितगति आचार्य - Srimad Mitagati Aacharya

Add Infomation AboutSrimad Mitagati Aacharya

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
गाथा ४ श्श यहां सनुष्य खुद भ्रंदाज कर लें ।. पबसे किसीने १० वर्ष पहले २० वर्ष पहले यह ख्याल ननाया होगा कि इतना सुखका साधन यौर बना लें फिर इच्छा तही है श्रानन्दसे रहेंगे । फिर श्राकुलतो विशेष न होगी श्ौर धर्मध्यानमे सधिक लगेंगे पर जैसे जैसे उनको मनमानी चीज प्राप्त होती गई क्या उनकी तृष्णा उसी दिधिसे बढती नहीं गई ? जैसे जैसे विषयसुख साघन मिलते जाते है वैसे ही वैसे तृष्णा शोर बढती जाती है । लिवयभोगके प्रसंग नपुसक गनकी विडस्वितता--जब कभी यह शरीरसे इतना भ्रशक्त हो जाता है बुढापा श्रानसे कि चह श्रत विषयोकों नहीं भोग सकता बढ़िया पदार्थोमे नहीं रम सकता श्रांह्लोंकी लाइट कम हो नानेंसे सिनेमा बरगरह नहीं देख सकता कानोसे राग रागनोके सुन्दर शब्द सही सुन सकता तो इसका यह नपुसिक मन भीतर ही भीतर रुषता रहता हैं प्रौर यह जीव दुःखी होता रहता है । श्रात्माचुशासनमे एक जगह इग सन को नपुसक बताया है । व्याकरणकी हष्टिसि भी मन शब्द नपुसक है । यह सफारान्त शब्द है जिसके रूप चलते है--मन. मनसी मनासी नपु सक लिख़में रूप चलते है । शब्द शास्त्र की दृष्टिसि तो मन नपुसक है ही पर यह प्रवृत्तिसे भी नपुसक है । जैसे कोई नपुसक विषयों को नहीं भोग सकता पर कल्पनाकी अग्तिसे वह अपनेकों जलाता रहता है ऐसे ही यह मन किसी विषयकों नहीं भोग पाता । रूप रस मंघ स्पर्श शब्द थे ही ५ तो विपय है । इनको शोगने वाली इन्द्रियाँ है किन्तु यह मन व्यर्थ ही उद्धत होता हुमा कष्ट पात्ता है । जीवकों दुखी करता है । तो ऐसे हो ये प्राणी सनमाने विषयसाधन न पानेसे कत्पनासे दुखी होते रहते है । इन विपयसुखोकी तृष्णाने बडे बडे देवोको भी बख्शा नहीं किन्तु महापुरुष देव भी इन विषयसुखोके वेगसे कष्ट पाते रहे । श्रतः कल्याणार्थी पुरुषोको इन विषय सुखोमे झसार बातोमे बुद्धि न जोड़ना चाहिए श्रौर सहज स्रात्मस्वरूपको निरखकर श्रलौकिक सहज ग्रातन्द पानिका उपाय बनाना चाहिये । यदि भवति समुद्र सिधुतोयेन तुप्तो यदि कथमपि वह्तिः काप्ठुसघा ततश्व । अ्रयमपि विषयेषु प्राणिवरगंस्तदा स्यादिति मनसि विदंतों मा व्यघुस्तेषु यह्नं तह॥। नदियोसे समुद्रकी अतृप्तिफ़ी तरह विषयोसे प्राशिवरगंक्ी श्रतृप्ति--यदि समुद्र नदियों के जलसे तृप्त हो जाय ग्रर्थात्‌ उससे भरपुर होकर श्रपनी मर्यादा छोड़कर वह निकले तो सले ही मर्यादा छोड दे किन्तु विषय भोगोमे यह प्रारिवग कभी भी तृप्त नहीं हो सकता । समुद्रमे नदियाँ कितनी ही श्राततों है किन्तु समुद्रसे नदियां निकलती नहीं है । तो जितनी भी नदियाँ ग्राती जांयें फिर भी समुद्र सानो इस तरह तुषामय हैं कि उसे प्रभी श्रौर भी नदिया चाहियें । उसकी श्रभी तृप्ति नहीं हुई । तृप्तिका श्रथ॑ यह है कि उस ससुद्रमेसे भी कोई नदों




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now