लंका - विजय (सिंहल - विजय) | Lanka - Vijay (singhal - Vijay)

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Lanka - Vijay (singhal - Vijay) by द्विजेन्द्रलाल राय - Dvijendralal Rayबाबू रामचंद्र वर्मा - Babu Ram Chandra Varma

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रामचन्द्र वर्मा - Ramchandra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दृद्य प्रथम अंक ७ यह अच्छा ही किया । महाराज में अपना अपराध स्वीकार करता हूँ। दूंड दीजिए । यह बीमत्स और कुत्सित दृश्य देखनेसे मुझे छुट्टी दीजिए । सिंह०--अपराघ स्वीकार करते हो ? विजय ०--हॉँ करता हूँ । सिंह०--सिपाहियो युवराजको कारागारमे बन्द कर दो | विजय ०--महाराजकी अय हो । दूसरा दृदय स्थान--राज-अन्त पुर। समय--सध्या । राजकन्या सुरमा और विजयसिंदकी पत्नी लीला बातचीत करती हुई आती हैं । लीला--मसुझे इस वातका किसी तरह विश्वास नहीं हो सकता कि मेरे स्वामी ऐसा काम कर सकते है । सुरमा--केसा काम लीला १? लछीकठा--ख्रीके ऊपर अत्याचार । वे राज्यमे अशान्ति फैला सकते है दुष्टोके ऊपर अत्याचार कर सकते हैं ठेकिन दुबठपर कभी हाथ नहीं छोड़ सकते । सुरमा--यह तुम किस तरह जानती हो लौला--मैे अच्छी तरह समझती हूँ । सुरमा--अभीतक तो उन्होने तुम्हारा मुँह भी नही देखा । तुम्हारा और उनका तो केवल उसी एक दिन सामना हुआ था-- लीठा--हां उसी एक दिन सामना हुआ था-- छुरमा--तबर तुमने यह कैसे जाना कि वे ऐसा काम नहीं कर सकते ?




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