रस - रत्नाकर | Ras Ratnakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो शब्द श्री पं० हरिशड्कर शर्मा कृत इस वृहत रस-प्रन्थ को देखने का श्रवसर मुमे प्राप्त हुआ । देखकर बड़ी प्रसन्नता हुईं । दिन्दी साहित्य में रस निरूपण-परक अनेक रचनाएँ हो चुकी हैं परन्तु यह अन्थ अपने ढंग का निराला है । इसके पढ़ने से ग्रन्थकार के विशिष्ट स्वाग्याय और रस-सम्बन्धी व्यापक ज्ञान का शनायास ही परिचय प्राप्त दो जाता है । संस्कृत के शआचार्यों ने रस को अनिवंचनीय कहा है परन्तु शर्माजी ने अपने अनुभव के बल पर इस अनिवंच- नीयता की जो निवंचन-विधि अपनायी है वह मुक्त कण्ठ से सरादना करने योग्य है । श्माजी की प्राजल लेखन-शैली के पुण्य-प्रवाह में डूबता-उतराता हुआ पाठक बड़ी सरलता से दुरूद रस-रददस्य को समभने में समथ हो सकता है | इस ग्रन्थ में रसराज--शगार को दी प्रधानता दी गई है इस विषय में श्माजी राजाजी के पक्के अनुयायी प्रतीत होते हैं । ( राजा तु शंगारमेवेकं रसमाह --सरस्वती करठाभरण । वयंतु शगारमेव रसनाद्रसमामनाम इत्यादि )--परन्ठु साथ दी इससे अन्य रसों की महत्ता कम नहीं दोने पाइं। इस अन्थ में नायिका-भेद का विस्तृत वणेन है परन्तु उसने श्लीलता की सीमा का कद्दीं भी उल्लंघन नहीं किया । जो विषय सभ्य-समाज ने इतना उपेक्षणीय समभ लिया था उसे शर्माजी ने जिस मनोहारिणी पद्धति से उपन्यस्त किया है उसे देखकर यदि नायिका भेद का जीशोद्धार कद्दा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी ।




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