संजीवनी विद्या | Sanjivani Vidya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३ प्रजोत्पादन और आत्म-संजीवस वीय॑-संजीवनी विद्या वास्तवमें राट्की उन्नति और आत्म-उन्नतिका मूछ मन्त्र है । प्रजोत्पादन और आत्म-संजीवन ३ मनुष्यके शरीरमें जो वीय॑ उत्पन्न होता है उसके केवल दो ही प्रका- रके उपयोग हैं । एक तो आत्म-संजीवन और दूसरा प्रजोत्पादन । जिस वीर्यका प्रजोत्पादनमें उपयोग होता है यदि उस वीयंका आत्म-संजीवनके लिए उप- योग किया जाय तो शरीर बलवानू होता है मन और बुद्धिकी शक्ति बढ़ती है मनुष्यका शील देवी हो जाता हे और संसारमें आदुर्दा स्त्री तथा पुरुष देखनेमें आते हैं । प्रजोत्पादनके द्वारा मनुष्य-जातिकी स्थिति बनी रहती है और उसकी वृद्धि होती है । आत्म-संजीवनके लिए वीर्यका उपयोग करनेकी जो पद्धति है इस पुस्त- कमें उसीका नाम संजीवनी विद्या रक्‍्खा गया है । यदि वीयेका व्यथ व्यय करनेके बदले उसे उचित मागंसे शरीरके अन्दर ही स्थिर रक्खा जाय तो वही वीर्य ओज शक्तिका रूप घारण कर छेता है । मनमें ख्तरियोंके प्रति जो काम- विकार उत्पन्न होता है यदि उसका दमन किया जाय तो उस विकारके उत्पन्न और प्रकट होनेमें जो शक्ति ठगती है उसका निरोध होता है जिससे ओज उत्पन्न होता हे और उस आोजका सारे दारीरपर प्रभाव पढ़ता है । स्वामी विवेकानन्दके शब्दोंमें कहा जा सकता है कि जिन ख्तियों और पुरु- पोंके चित्तको काम-विकार स्पद्दं नहीं करता उनमें इस प्रचंड शक्तिका निरोध होता है जिससे ओजसू उत्पन्न होकर मस्तिष्क्में संचित होता है । इसी लिए सब जगह और सब घर्मामें ब्रह्मचयेका बहुत अधिक मदस्व बतला- या गया है । जो मनुष्य कामके वदमें होकर पागरू हो जाता है वह मानों ओजसू और तेज नष्ट होनेके मा्गपर अग्रसर होने छगता है । ऐसा मनुष्य अपने स्वरूपसे बहुत दूर जाने रूगता दे । उसकी इच्छा-शक्ति नष्ट होने छगती है । उसका निश्चय इढ नहीं होता और उसके द्ाथसे कोइ छोटासा कार्य भी नहीं दो सकता ।




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