जैन दर्शन | Jain Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
62.66 MB
कुल पष्ठ :
457
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दी दाब्द जब भारतीय ज्ञावपीठ काशीसे प्रकाशित न्यायविनिश्वयविवरण और तत्त्वा्थ- . वृत्तिकी प्रस्तावनामें मैंने सुहदर महापंडित राहुल. सांकृत्यायनके स्याद्वाद विषयक ब्िचारोंकी आलोचना की तों उन्होंने मुझे उलाहना दिया कि क्यों नहीं आप स्याद्वादपर दो ग्रन्थ लिखते-+एक गम्भीर और विद्वद्धोग्य भौर दूसरा स्याद्वाद- प्रवेदिका । उनके इस उलाहनेने इस ग्रन्थके लिखनेका संकल्प कराया और उक्त दोनों प्रयोजनोंको साधनेके हेतु इस ग्रन्थका जन्म. हुआ | ... गरल्थके लिखतेके संकल्पके बाद-लिखनेसे लेकर प्रकाशन तककी इसकी विचित्र कथा है। उसमें न जाकर उन सब अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियोंके फलस्वरूप निर्मित अपनी इस कृतिकों मूर्तरूपमें देखकर सन्तोषका अनुभव करता हूँ । जैन धर्म और दर्शनके सम्बन्धमें बहुत प्राचीन कालसे ही विभिन्न साम्प्रदायिक और संकुचित सांस्कृतिक कारंणोंसे एक प्रकारका . उपेक्षाका भाव ही नहीं उसे विपर्यास करके प्रचारित करनेकी प्रेवृत्ति भी जान-बूझकर चालू रही है । इसकें लिये पुराकालमें जो भी प्रचारके साधन--ग्रन्थ शास्त्राथ और रीति-रिवाज आदि थे उन प्रत्येकका उपयोग किया गया । जहाँ तक विशुद्ध दार्दनिक मतभेदकी बात है वहाँ तक दर्दानके क्षेत्रमें दृष्टिकोणोंका भेद होना स्वाभाविक है । पर जब वे ही मतभेद साम्प्रदायिक वृत्तियोंकी जड़में चले जाते हैं तब वे कर्शनकों दूषित तो कर ही देतें हैं साथ ही स्वस्थ समाजके निर्माणमें बाधक बन देशकी एकताकों छिन्न-भिन्न कर विष्वशास्तिके विघातक हो जाते हूँ । भारतीय दर्दानोंके विकासका इतिहास इस बातका पूरी तरह साक्षी है। ददन ऐसी ओषधि है कि यदि इसका उचित रूपमें और उचित मात्रामें उपयोग नहीं किया गया तो यह समाज-दरीरकों सड़ा देगी भौर उसे विस्फोटके पास पहुँचा देगी । ( जैन तीर्थड्रुरोंने मनुष्यकी अहड्ारमू लक प्रवृत्ति और उसके स्वार्थी वासनामय मानसका स्पष्ट दशन कर उन तत््वोंकी ओर प्रारम्भसे ध्यान दिलाया है जिनसे इसकी दृष्टिकी एकाज़िता निकलकर उसमें अनेकाज्िता आती है और वह अपनी दुष्टिकी तरहू सामनेवाले व्यक्तिकी दृष्टिका भी सम्मान करना सीखती है उसके _ प्रति सहिष्णु होती है अपनी तरह उसे भी जीवित रहने और परमार्थ होंनेकी अधिकारिणी सानती है 1) दुष्टिमें इस आत्मौपम्य भावके आ जाने पर उसकी भाषा बदल जाती है उसमें स्वमतका दुर्दन्त अभिनिवेश हटकर समन्वयशीलता आती
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