भारतीय विचारधारा | Bhartiya Vichardhara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नै व्द २१ नासदासीन्नों सदासीत्तदानों नासोद्रजो नो व्योमा परा यत्‌ । किमावरीवः कुह कस्य दामं न्नस्भः किसासीदू गहन गभीरम्‌ ॥ न सृत्युरासीदमूतं न. ताहि न राज्या श्रष् झासीतू प्रकेतः । अनीदवातं स्वघया तदेके॑ तस्माद्धान्यन्न पर किचनास ॥ इस गीतसे स्पष्ट है कि यहां कारण सिद्धान्तको माना गया है । उस समय तदू एकम्‌ था जो बिना हवाके अपनी दा्क्तिसे सौस ले रहा था। यहीं सृष्टिके मूलकी ही खोज .नहीं की गई है किन्तु उस मूलकी प्रकृतिको जाननेका भी प्रयास किया गया हैं । तद एकम्‌ परम सिद्धान्तकी एकता और भावरूपताकों बताता है । यज्ञके प्रभावके कारण सृष्टिकी व्याख्याका एक और दृष्टिकोण भी है जो जगत्‌की उत्पत्ति वलिसे मानता है। यह पुरुष सूक्त में वर्शित है जहाँ पुरुषकी बलि देनेपर जगत्‌की सामग्री मिलती है। पुरुषका वर्णन अत्यन्त कवित्वपूणं है । उसके मस्तिष्क से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ आंखसे सूर्य मु हसे इन्द्र और अग्नि सौससे वायु इत्यादि । जो हुआ है और जो होगा वह सब पुरुष ही है । यहां सम्पूर्णको उसके खण्डोंमें विभाजित किया गया है । उपनिषद्‌ कभी कभी इसके प्रत- कूल अनुभवमें दिए गए अलग अलग खण्डोंसे सम्पूणंका निर्माण करते हैं । ... पुरुषके दृष्टिकोणमें हमें सामाजिक संस्थाओंका अंकुर मिलता है । ब्राह्मण उस (पुरुष) का मुख था क्षत्रिय उसकी बाहें वैरय उसकी जांघें १ दे० वहीं संडल १० सूक्त १२९ उस समय न तो सत्‌ था ्रौर न झसत न रज थी श्रौर न ही गगनका शून्य । पानीके गहरे गर्भसं नजाने कौन वस्तु किस वस्तुको कहां ढंक रही थी । न कहीं मृत्यु थी और न ही श्रमरता न कहीं दिन था और न रात । बस एक वह साँस ले रहा था । पवन भी नहीं थी और न कुछ श्रौर था । २ दे० वही सं० १० सृक्त €० ३ ३ पुरुष एवंदं सब यद्‌ भूतं यच्च भव्यम्‌ ।




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