सांख्यतत्त्व कौमुदी - प्रभा | Sankhya Tatva Kaumudi - Prabha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18.06 MB
कुल पष्ठ :
89
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. आद्या प्रसाद मिश्र - Dr. Aadhya Prasad Mishra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ४ ) प्रतीत्र होता है । यह बात समझ में नहीं आती कि इस मत में सेइवर सांख्य का सिद्धान्त मानने में क्या कठिनाई है? स्वयं स्वामी शंकराचायं ने अपने पाट्सूत्र-भाग्य में स्पष्ट हो कहा है कि सांख्य वेदान्त के बहुत समीप है । इस मत से उन्हा प्बमे बड़ा विरोध केवल इस बात के कारण है कि यह अचे- प्रकृति को ईश्वर इत्यादि चेतन अधिष्ठाता की बिना अपेक्षा किए ही पृशथ के भोग और मोक्ष के लिए सृष्टि में प्रवुत्त होने वाली मानता है । प्रकृति के अधिष्ठाता के रूप में इंइवर को स्वीकार कर लेने पर दोनों में कम हो मद रह जाता है। ऐसी स्थिति में तो उपयुक्त मन्त्र में सेइ्वर सांख्य के सिद्धान्त का उल्लेख न केवल अनुचित नहीं जान पड़ता अपि तु तत्कारणं नारपन्योगा दिगसणर् तथा ऋषि प्रसूत कपिल यस्तमग्रे इत्यादि मन्त्रों के साथ पढ़े जाने पर सबंधा ८चित्र और स्वाभाविक जान पढ़ता है क्योंकि प्रबम मन्त्र में संखय शान को स्पष्ट हो उच्चतम कोटि का साधन माना है और यदि सांख्यगास्त्र इस उपनिषद् के पृव॑ नहीं था तो इस प्रकार का उल्नेख अनगल अर काल्पनिक सिद्ध होता है जो सम्भव नहीं प्रतीत होता । इस सेश्वर सांख्य के इस प्रकार श्रुति-मूलक होने के कारण ही महाभारत में सांख्वानुवायियों को यघाश्तिनिदर्शिन . ब्राह्मणास्तत्त्वदर्शिन इत्यादि कहना संगत होता हैं । इससे तो यहीं मानना उचित लगता है कि कठ भर इवेता- इ्वर दोनों के पूर्व अर्थात् ई० शताब्दी से बहुत पूर्वे सेश्वर सांख्य व्यवस्थित हो चुका था । जंकोबी का यह कथन कि अत्यस्त प्राचीन एवं प्राचीन उपनि- पदों के बीच सांख्यदर्शन का उदय मानने के विषय में दो मत नहीं हो सकते सर्वधा ठीक लगता है । केवल इतनी बात और स्मरण रखने की है कि यह मत सेइवर सांख्य के विषय में ही मान्य है । निरोश्वर सांख्य संभवत ईश्वर- कष्ण के बहुत पुवं का नहीं है इसे आगे स्पष्ट करेंगे। श्रुतियों से आई हुई सेइ्वर सांख्य को यहीं परम्परा महामारत मनुस्मूति तथा भागवत भादि १. डा० शर्मा का यह मत ब्रह्मसुच १४४ के शां० भा० पर आधघा- रित है--बह्झवादिनों वदस्ति--कि कारण ब्रह्म (इ्वेता० १1१) इत्युपक्रम्य है घ्यानयोगानुगता अपडमनु देवात्मदक्ति स्वयुणनिगूढासु ( दवेता० १15३ ) इति परमेदवर्मा झक्ते समस्तजग्द्विघायिन्या वाक्योपक्रमेश्वगमातू । वाक्य- शेषेपि मायाँ तु प्रकृति विद्यान्माधिन तु महेस्वरमू इति तस्या एवावगमान् स्वतन्त्रता काचित्महति प्रधान नाम अजामन्वेजाम्नायत इति झक्यते वक्तुम् ॥
User Reviews
No Reviews | Add Yours...