जीवन और मृत्यु | Jeevan Aur Mrityu

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Jeevan Aur Mrityu by आचार्य चतुरसेन - Achary Chatursen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुभ् भीख मागकर खाना मजूर है मुक्त छोड़ दी मुक्त घले जाने दो लेकिन उसकी यह सारी हाय-तौबा व्यथ गयी । उसपर कड़ा पहुरा लगा दिया गया । परन्तु सब प्रकार का सुख और ऐश्वयं का भोग करने में तो उसको बैसी ही छूट थी । अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजनों के भरे हुए थाल उसके सामने लाये गये । उसने पागल की तरह उन्हें उठाकर फेंक दिया स्वच्छ और कोमल गहें उसे काटने लगे और उसने आपे से बाहर होकर उन्हें फाड़ डाला । दास और दासियाँ जब उसकी सेवा और आज्ञा के लिए विनीत भाव से हाजिर हुए तो उसने उन सबको भगा दिया । उसकी दा उस मछली की भाँति थी जो जीवित ही तवे पर तली जा रही थी । बह छटपटा रहा था । चीख और चिल्ला रहा था रो रहा था और दूहाई दे रहा था चहु चाहता था कि उसे राजा के सामने उपस्थित किया जाय और वह राजा से पूछे कि उसका अपराध कया है । राजा को उसकी हालत की सुचना दी गयी और कहा गया कि उसने खाना पीन सोना सब त्याग रक्‍्खा है और उसकी हालत बहुत ही खराब हैं । डर है कि कही वह जगले से कूदकर अपनी जास न दे दे । मूनि अप्टावक्र ने राजा से कहा कि महाराज यह आपका किसे श्रकार का खेल है। इस निरपराघ व्यक्ति को सुली पर चढ़ा देना यह आपके लिए सोभतीय नही है । राजा ने मुनि से कहा कि आप जाइये और उसकों समभकाइये और कहिये कि वह खाना-पीना खाये और आराम से सोबे । सुली तो उसे कल सल्ध्या काल में दी जावेगी । उसे अभी से इतनी बरेचेनी क्यों है ? परन्तु मुनि के वहाँ जाने और समझाने का कोई लाभ नहीं हुआ 1 अन्त में राजा ने उसे अपने सामने ले आने की आज्ञा दी और उससे कट्टा कि जो कुछ कहना चाहता है वह कहें । झसमे हाथ जोड़कर और सिर भुकाकर महाराज से कहा महाराज मुक्त निरपराघ को क्यों मारा जा रहा है ? मेरा अपराध क्या है जो मृभ सुली दी जा रह्दी है ? राजा ने कहा--सुम्हारा कोई अपराध नहीं तुम्हें सुली हम अपनी इच्छा से दे रहे हैं । १९ / पहली तरंग




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