पाश्चात्य दर्शन | Western Philosophy 1978 Ac 5468

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( किक भी उम्रका से आभारी हूँ । इस पुस्तक के प्रणयंन की पृष्ठभूमि में कलिपय सहत्वपूर्ण प्रेरणाओं ने भी कांसे किया है, उनकी यहाँ चर्चा किये बिना सम्भवत: मैं कतघ्नता के दोष का भागी हुँगा । इन प्रेरणा-लोतों में मुख्य रूप से दो स्रोत हैं, प्रथम हैं डा० जनेदवर कुच्ण शौयल श्र दूसरे हैं पो० राम अवतार सेवक वात्स्यायन । दोनों मेरे अत्थम्त निकट सिर एवं साथी हैं । डा० गोयल अपने ही कालिज में मणित के बरिष्ठ प्राध्यावक हैं, गौर श्रो० सेवक बात्स्यावन हिन्दी बिभागाध्यक्ष हैं । दोनों ही स्नेही मित्रों मे समय समय पर मुझ्ने जनेक मूल्यवान सुझाव दिये हैं और विभिन्न प्रकार से सहयोग भ्रदास' किया है । प्रो ० यास्स्यायन ने प्रस्तुत पुस्तक के लिये स्नेह के दो शब्द भी लिखने कौ कुपा की है । मैं डा० गोयल तथा प्रो० वात्स्यायन दोनो का ही उनके आत्मीय शाव के लिए परम कतज्ञ हैं । प्रूफ-रीडिंग आदि अनेक कार्यों मे मेरी धर्म-पत्नी श्रीमती सुभाधिनी देवी ने भी बहुत मात्रा मे मेरा सहयोग दिया है । अपनी पत्नी को चन्यवाद देना भारतीय परम्परा के अन्तगेंत समाहित नहीं है, अतः यह अकथित ही समूपयुक्त है। उपयुक्त धन्यवाद प्रकाशन के अतिरिक्त मैं उन सभी अन्य लोगो के प्रति अपनी कूृतजञता प्रकाशित करना अपना कर्सव्य मानता हूँ जिन्होंने किसी भी अंश मे बोर किसी भी रूप मे इस पुस्तक को पूर्ण करने में मूझे अपना सहयोग किया है । अब दो शब्द कमा याचना कें भी । पर्य्याप्त प्रयत्न करने पर भी मुद्रण की कुछ अशुद्धियों रह गयी हैं, इसके लिये पाठकगण कुपया क्षमा करेगे । पुस्तक को अधिक सफ्योगी बनाने हेतु जो सुझाव मुझे प्राप्त होगे वे मुझे सह्ष तथा सधन्यवाद स्वीकार होंगे । -जतह्य स्वरूप अग्रयाल उत्तरकाशी मई, सन्‌ १९७४




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