तत्त्व मीमांसा | Tatwa Mimansa
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
74.31 MB
कुल पष्ठ :
519
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
ए. ई. टेलर - A. E. Taylor
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सुधीन्द्र - Sudhindra
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तत्त्वसीमांसक की कठिनाइयाँ ९ कि तर्कशास्त्र और नीतिशास्त्र की तरह वह भी विद्षेष तथ्यों और घटनाओं-विषयक हमारे ज्ञान-भंडार की कुछ भी वृद्धि किये बिना केवल उन तरीकों की ही चर्चा करती है जिनका उपयोग उस हालत में तथ्यों और घटनाओं के अथे-निणंय हेतु हमें करना आवश्यक होता है जब कि हम संगत विचार करना चाहें । वह यह नहीं जानना चाहती कि किसी विदिष्ट प्रक्रिया-कुलक की किन तफ़सीलों को सत्य समझा जाय । अपितु वह केवल यह जानना चाहती है कि वे कौन-सी सामान्य दार्तें हैं जिनका अनुरूपण सब प्रकार के सत्य के निर्धारण के लिए अपेक्ष्य है (ठीक उसी तरह जिस तरह तकंशास्त्र किसी विदिष्ट वैज्ञानिक सिद्धान्त सम्बन्धी साक्ष्य की अहंता पर बहस नहीं करता बल्कि उन सामान्य परिस्थितियों पर ही विचार करता है जिनके अनुरूप उस साक्ष्य का होना उसके निष्कर्ष की सिद्धि के लिए आवश्यक है ।) इसी कारण अरस्तू ने तत्त्वमीमांसा को यथाशक्य अस्तित्व-विषयक विज्ञान ठीक ही कहा है । (उदाहरणतः गणित तत्त्वमीमांसा का प्रतिठोमी विज्ञान है क्योंकि गणित अस्तित्व का उसी सीमा तक अध्ययन करता है जहाँ तक परिमाणात्मक या संख्यात्मक हो । ) इसके अतिरिक्त तत्त्वमीमांसा को वास्तविकता अथवा सत्य सम्बन्धी निरा- घार पु्वे-प्रत्ययनों की खोज करने और उनसे बच निकलने के एक प्रयत्न के रूप में विचि- कित्सु अथवा संशयवादी ज्ञान भी एक मा ने में कहा जा सकता हैयद्यपि अपनी काय-पद्धति और नैतिक प्रयोजन दोनोंही के कारण वह सामान्य विचिकित्सा से बहुत भिन्न है । सामान्य विचिकित्सा की विचार-सरणि तथा कार्य-पद्धति पूर्वाग्रह अथवा कट्टरता पर आधारित होती है अर्थात् वह पहले ही से बिना किसी जाँच-पड़ताल के यह मान कर चलती है कि ऐसे दोनों ही प्रत्ययन जो परस्पर-विरोधी हैं अथवा ऐसे दोनों ही विचारात्मक सिद्धान्त जो एक दूसरे से भिन्न हैं अवश्य ही असत्य होने चाहिए । चूंकि इस प्रकार की विभिन्नताएँ अथवा विषमताएँ ज्ञान के प्रट्थैक क्षेत्र में पायी जा सकती हैं इसलिए प्रत्येक विचिकित्सावादी अथवा संशयवादी कट्टरतापुर्वक पहले ही से यह मान लेता है कि परस्पर-विरोधिनी इन प्रतीतियों के पीछे जाकर संगत वास्तविकता या सत्य तक पहुंच सकने का कोई चारा ही नहीं है। इसके प्रतिकूल तत्त्वमीमांसक के लिए यह मानकर चलना ही कि अनुभवगम्य पहेलियाँ अनबूझ होती तथा हमारे ज्ञान-विषयक वैषम्य असमाधेय हुआ करते हैं स्वयं उन पूर्वाग्रहों में से अन्यतम होगा जिनकी जाँच करना और जिन्हें कसौटी पर कसना उसका अपना अधीतव्य है। वह आलोचनात्मक दृष्टि से उस पर विचार किए बगैर यह बताने से इनकार कर देता है कि परस्पर-विरोधी किन्हीं दो विचारधाराओं में से कौन सही है तथा यह भी कि. अगर दोनों ही को गलत मान लिया जाय तो उन दोनों में से कौन सत्य के अधिक निकट है। भले ही वह न माने कि अपनी मानवीय शक्तियों द्वारा हम सत्य की प्राप्ति कर सकते और उसे जान सकते
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