बौद्धधर्म का प्रभाव | Baudh Dharma Ka Prabhav

Baudh Dharma Ka Prabhav by डॉ. विद्यावती 'मालविका' - Dr Vidyawati 'Malvika'

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डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ सागर नगर की एक ऐसी साहित्यकार हैं जिनका साहित्य-सृजन अनेक विधाओं, यथा- कहानी, एकांकी, नाटक एवं विविध विषयों पर शोध प्रबंध से ले कर कविता और गीत तक विस्तृत है। लेखन के साथ ही चित्रकारी के द्वारा भी उन्होंने अपनी मनोभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। सन् 1928 की 13 मार्च को उज्जैन में जन्मीं डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ ने अपने जीवन के लगभग 6 दशक बुन्देलखण्ड में व्यतीत किए हैं, जिसमें 30 वर्ष से अधिक समय से वे मकरोनिया, सागर में निवासरत हैं। डॉ. ‘मालविका’ को अपने पिता संत ठाकुर श्यामचरण सिंह एवं माता श्रीमती अमोला देवी से साहित्यिक संस्कार मिले। पिता संत श्यामचरण सिंह एक उत्कृष्ट साहित

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बाद्धघम का भारत मे विकास डे थी. इन गुरुकुछों के शिक्षक आचाय उपाध्यय तथा दि्याप्रामोरय आचाय ( दिसापासोनख आचरिय ) होत थ जनता सार्वजनिक कार्य करने में अग्रसर रहती थी और अपना उसमे सौभाग्य मानती थी | बाग लगाना, उपबन का निर्माण, पुल बँधवाना, प्याऊ बैठाना, कप खोदवांना और पथिकों के विश्वाम के लिये वर्मशाला बनवाना बहुत ही उत्तम सार्वजनिक कार्य साने जातें थे* । मार्ग को साफ करना, गाँवों की सफाई करन! तथा सबके उपयोग के योग्य स्थलों को शुद्ध रखना महत्वपूर्ण सार्नजनिक कार्य साने जाते थे । भगवान्‌ बुद्ध के आविर्भाव के पूर्व उत्तर भारत को धार्मिक एवं दार्शनिक स्थिति जटिल हो गयी थी । नाना प्रकार के मतवाद फैले हुए थे । कर्मकाण्ड एवं अन्धविदवात में पड़ी हुई जनता धार्मिक एवं दार्गनिक ऊहापोह में ही उलन्नी हुई थी । एक ओर उपचिपद्‌ आदि के दार्शनिक ज्ञान की' चर्चा होती थी तो दूसरी ओर यज्ञ, होम, बलि, मेध आदि कर्मकाण्ड का बोलबाला था । निरीह-पशुओ की वि यज्ञो में पुष्य की अभिलाथा से लोग करते थे, जिनमें पेड, बकरे, गाय, मैस और साँड़ के अतिरिवत अरवे, गज और नर-बलि तक का प्रचलन था | दशन की स्वाभाविक जटिलताओं से जन-जीवन वोलिल था । उस समय सप्पूर्ण भारत में छ प्रमुख धर्माचार्य अपने-अपने धर्म तथा दर्शन के प्रचार में संलग्व थे । जिनके सास है-+( १ ) पूरण कस्सप ( पूर्ण काइयप ), ( २) सक्खलि गोसाल ( मस्करी गोशाल ), ( ३ ) अजित केस कम्बलि ( अजित केश कम्बलि ), ( ४ ) पंकुधकच्चायन (प्रद्मधकात्यायन), ( ५ ) निगण्ठ नाथपुत्त ( निर्मस्थ ज्ञातृपत्र ), ( ६ ) संजय बेलट्रिपूस ( संजय वेलष्ठि पुत्र )* । इन्हें तीर्थ डू[र भी कहां जाता था । इनमे पूर्णकाइयप अक्रियाबादी थे । उनका मत था कि संसार में पाप- पुष्य का कोई फल नहीं होता । चाहे कोई कितना ही पाप करे था. पुष्य, उसके कारण उसे बुरे-भले विपाक नहीं मिलेंगे । मक्खलि गोसाल देववादी थे । उनका कथन था कि प्राणियों के कष्ट भोगने का कोई कारण नहीं हैं । संसार के जीव बिवा किसी हेतु के दुख भोगते है । बे अपने व मे नहीं हैं। वे भाग्य के फेर में पड़कर छः जातियों, चौसठ लाख छियासठ योनियों में सुख-दुख का अनुभव करते है । जैसे सुत की गोली फेंकने पर उछलती हुई गिरती है वैसे ही प्राणी आवागमन में पढ़कर ही दुख का अन्त कर सकेंगे* । अजित केश कम्बछिं उच्छेदबादी थे । उनका सिद्धान्त था कि आत्मा, परमात्मा, लोक, परलोक, माता-पिता, पुण्य-पाप कुछ नहीं है । मनुष्य चार महाभूतो से मिलकर बना है । जब वह सरता हैं तो पृथ्वी महापृथ्वी मे लीन हो जाती है । ऐसे हो जछ, तेज ( अग्नि ) तथा वायु क्रमण जरू, १. जातक १८ । संयुत्ततिकाय, प्रथम भाग, भिन्षु धर्मरक्षित द्वारा हिन्दी में अनूदित, बनरोपसुत्त १, ५, ७, पृष्ठ २३ । ३. धम्मपदटुकथा, सघमाणवक की कथा 1 दीघनिकाय है. रे पृष्ठ ईै९ रर । प्‌. वहीं पृष् १९ ६. वहीं पृ० २० ग्ट्‌




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