शिक्षा संस्कृति और समाज | Siksha Sanskriti Aur Samaj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.19 MB
कुल पष्ठ :
126
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१७ श्रघिकारीवाद के दोप
चली जाय, भरत: वे यथार्थ शाश्वत सत्यों तथा जनता के श्रर्थहीन
कसंस्कारों में समकौता कराने का प्रयत्न करते हैं श्रौर इस प्रकार
लोकाचारों एवं देशाचारों की सृष्टि करके इस सिद्धान्त को गढ़ देते हैं
कि सब लोगों को इन विविध श्राचरणों का पालन करना ही होगा ।
परन्तु देखो, इस तरह के समभौते को तिलांजलि देदो, श्राँखों में घूल
भौंकने का प्रयत्न मत करो, मुर्दों को फूलों में मत छिपाओओ ! “तथापि
लोकाचारों”--फिर भी लोकाचार का पालन तो करना ही होगा--
इस तरह के वाक्यों को नष्ट करके फेंकदो । इनमें कोई भ्रथ नहीं है ।
इस तरह के समभौते का परिणाम यहीं होता है कि महान सत्य कड़े
कचरे के ढेर में दब जाते हैं, श्रौर उनपर के ये क्लुड़े-ककंट ही श्राग्रह-
पूर्वक यथाथ॑ सत्य मान लिए जाते हैं । श्रीकृष्ण द्वारा स्पष्ट रूप से
घोषित किए हुए गीता के महानु सत्यों पर भी वाद के टीकाकारों ने
इसी तरह के समभौतों का रंग चढ़ा दिया श्रौर उसका फल यह हुमा
कि संसार के सकसे श्र छ इस घर्म-ग्रन्थ में भी श्राजकल वहुत-सी ऐसी
वातें पाई जाती हैं जिनसे लोग सत्य के मार्ग से भटक जाते हैं ।
समभते के लिए इस तरह का प्रयत्न श्रत्यन्त कायरता से प्रसूत
होता है । भरत: वीर वनों ! मेरे वालकों को सबसे पहले वीर बनना
चाहिए । किसी भी कारण से त़ृनिक.भी समभकोता मत करो । सर्वोच्च
सत्य की मुक्त रूप से घोषणा करदो । प्रतिष्ठा के नष्ट हो जाने श्रथवा
भ्रप्रिय संघर्ष होने के भय से पीछे मत हटो । यह निश्चित जानो कि
यदि तुम प्रलोभनों को ठुकराकर सत्य के सेवक वनोगे. तो तुममें ऐसी
दैवीदक्ति श्राजाएगी जिसके समक्ष लोग तुमसे उन वातों को कहते
हुए भयभीत होंगे जिन्हें कि तुम सत्य नहीं समकते । यदि तुम विना
किसी विक्ष प के निरन्तर चौदह वर्षों तक सत्य की शथ्रनन्य सेवा करः
सको तो तुम जो कुछ कहोगे, लोग उस पर विश्वास कर लेंगे ।
उस समय तुम जनता का सबसे वडा उपकार करोगे तथा उनके
वन्धनों को तोड़कर सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नत बना दोगे ।
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