काव्य मंदाकिनी | Kavya Mandakini

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Kavya Mandakini by डॉ. सरनदास भनोट - Dr. Sarandas Bhanot

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कबीर एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना न कान ॥ कबिरा प्याला प्रेम का झ्ेतर लिया लगाय । | रोम रोम में रमि रददा और अमल क्या खाय ॥ £'दरि से तू जनि देत कर कर दरिजन से दंत । * माल सुलुक हरि देत हैं हरिनन दरिहिं देत ॥ दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काढ़े को होय ॥ सुख में सुमिरन ना किया दुख में कीया याद ॥ कद्द कवीर ता दास की कौन सुने फिरियाद ॥ सुमिरन सों मन लाइए जेसे नाद करेंग । कहें कबीर बिसरे नहीं प्राच तजे तेडि संग ॥ माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर । कर का मनका डारि दे मन का मनका फेर ॥ कबिरा माला मनहिं की श्र सेसारी भेख । माला फेरे हरि मिलें गले रेट के देख ॥ माला तो कर में फिरे जीभ फिरें सुख साहिं । मजुवां तो दृहँ दिसि फिरे यह तो छुमिरन नाहिं ॥ पृूसाधू गाढ़ि न बेघई उद्र समाता लेय। श्रागे पाछे हरि खड़े जब मांगे तब देय ॥ साईं इतना दीजिए जा में कुट्ेंब समाय। मैं भी भूखा ना रहूं साघु न भूखा जाय ॥ क्या मुख ले बिनती करों लाज श्रावत है मोर्दि । चुम देखत श्रौगुन करों केसे. सावों तोदिं ॥ मैं झपराधी जन्म का नख-सिख भरा विकार । तम दाता “खर्भज़ना मेरी करो. रूम हो




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